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इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जितने रथ हाथी घोड़े औ राक्षस उस खेत में रहे थे तिन्हें पवन ने तो समेट इकट्ठा किया और अग्नि ने पल भर में सबको जलाय भस्म कर दिया। पंचतत्व पंचतत्व में मिल गये। उन्हें आते सबने देखा पर जाते किसी ने न देखा कि किधर गये। ऐसे असुरों को मार भूमि का भार उतार श्रीकृष्ण बलराम भक्तहितकारी उग्रसेन के पास आय दंडवत कर हाथ जोड़ बोले कि महाराज, आपके पुन्य प्रताप से असुरदल मार भगाया, अब निर्भय राज कीजे, औ प्रजा को सुख दीजे। इतनी बचन इनके मुख से निकलतेही राजा उग्रसेन ने अति आनन्द मान बड़ी बधाई की औ धर्मराज करने लगे। इसमें कितने एक दिन पीछे फिर जरासंध उतनीही सेना ले चढ़ि आया, औ श्रीकृष्ण बलदेवजी ने पुनि त्यौही मार भगाया। ऐसे तेईस तेईस अक्षौहिनी ले जरासंध सत्रह बेर चढ़ि आया, औ प्रभु ने मार मार हटाया।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेव मुनि ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, इस बीच नारद मुनि जी के जो कुछ जी से आई तो ये एकाएकी उठकर कालयवन के यहाँ गये। इन्हें देखतेही वह सभा समेत उठ खड़ा हुआ, औ उसने दंडवत कर, कर जोड़ पूछा कि महाराज, आपका आना यहाँ कैसे भया।

सुनिकै नारद कहै बिचारि। मथुरा में बलभद्र मुरारि।
तो बिन तिन्है हतै नहि कोइ। जरासंध सो कछु नहि होइ॥

तू है अमर अति बत, बालक हैं बलदेव औ हरी। यो कह फिर नारदजी बोले कि जिसे तू मेघबरन, कॅवलनैन, अति सुंदर बदन, पीतांबर पहरे, पीतपट ओढ़े देखे तिसका तू पीछा बिन