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के ऊधो मनहीं मन पछताय सकुचाय मौन साध सिर निवाय रह गये। फिर एक गोपी ने पूछा कहो बलभद्रजी कुशल क्षेम से है, औ बालापन की प्रीति विचार कभी वे भी हमारी सुधि करते हैं किं नहीं है?

यह सुन विनहीं में से किसी और गोपी ने उत्तर दिया कि सखी, तुम तो हो अहीरी गँचारि, औं मथुरा की हैं सुंदर नारि। तिनके बस हो हरि बिहार करते हैं, अब हमारी सुरत क्यौ करेगे, जद से वहाँ जाके छाये, सखी, तद से पी भये पराये, जो पहले हम ऐसा जानतीं, तो काहे को जाने देतीं। अब पछताये कुछ हाथ नहीं आता, इससे उचित है कि सब दुख छोड़ अवध की आस कर रहिये, क्योकि जैसे आठ महीने पृथ्वी, बन, पर्वत, मेघ की आस किये तपन सहते हैं, औ तिन्हे आय वह ठंढा करता है, तैसे हरि भी आय मिलेगे।

एक कहति हरि कीनौ काज। बैरी मान्यो लीनौं राज॥
काहें को बृंंदावन आवें। राज छांड़ि क्यों गाय चरावै॥
छोड़हु सखी अवध की आस। चिंता जैहै भये निरास॥
एक त्रिया बोली अकुलाय। कृष्ण आस क्यौ छोड़ी जाय॥

वन, पर्वत औ यमुना के तीर में जहाँ जहाँ श्रीकृष्ण बलबीर ने लीला करी हैं, वही वही ठौर देख सुध आती है खरी, प्रानपति हरी की। यो कह फिर बोली―

दुख सागर यह ब्रज भयौ, नाम नाव बिच धार॥
बूड़हि बिरह वियोग जल, कृष्ण करे कब पार॥
गोपीनाथ की क्यो सुधि गई। लाज न कछू नाम की भई॥

इतनी बात सुन ऊधोजी मनहीं मन विचारकर कहने लगे