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जद तुम ईश्वरता बिसराई। अंतरध्यान भए येदुराई॥

फिर जो तुमने ज्ञान कर ध्यान हरि का मन में किया, तोंही तुम्हारे चित की भक्ति जान प्रभु ने यि दरसन दिया। महाराज, इतना बचन ऊधोज के मुख से निकलतेही―

गोपी तबै कहै सतराय। सुनी बात अब र अरगाय॥
ज्ञान जोग बुधि महि सुनावै। ध्यान छोड़ आकाश बतावै॥
जिनकी लीला में मन रहै। तिनको को नारायन कहैं॥
बालकपन ते जिन सुख दुयौ। सो क्यों अलख अगोचर भयौ॥
जो सब गुन युत रूप सरूप। सो क्यो निर्गुन होय निरूप॥
जौ तन में प्रिय प्रान हमारे। तौ को सुनिहै बचन तिहारे॥
एक सखी उठि कहै विचारि। ऊधों की फीजे मनुहारि॥
इन सो सखी कछु नहि कहिये। सुनिके बचन देख मुख रहिए॥
एक कहति अपराध न याको। यह आयो पठयो कुबजा को॥
अब कुबजा जाहि सिखावै। सोई वाको गायौ गावै॥
अबहूँ स्याम कहै नहि ऐसी। कही आय ब्रज में इन जैसी॥
ऐसी बात सुनें को माई। उठ्त सूल सुनि सहीं न जाई॥
कहत भोर तजि जग अराधा। ऐसी कैसे कहिहै माधों॥
जप तप संजम नेम अचार। यह सब विधवा कौ व्यौहार॥
जुग जुग जीव कुँवर कन्हाई। सीस हमारे पर सुखदाई॥
अच्छत पति भभूत किन लाई। कहौ कहाँ की रीति चलाई॥
हमको नेम जोग व्रत एहा। नँदनँदन पद सदा सनेहा॥
ऊधो तुम्हें दोष को लावै। यह सब कुबजा नाच नचावै॥

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेव मुनि बोले कि महाराज, जब गोपियों के मुख से ऐसे प्रेम सने बचन सुने, तब जोग कथा कह