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जहाँ कुबजा सी पटरानी औ श्रीकृष्णचंद विराजते है कि एक जन्म की हम क्या कहै, तुम्हारी तो जन्म जन्म यही चाल है। बलि राजा ने सर्वस दिया, तिसे पाताल पठाया, औ सीता सी सती को बिन अपराध घर से निकाला। जब उनकी यह दशा की तो हमारी क्या चली है। यो कह फिर सबै गोपी मिल हाथ जोड़ ऊधा से कहने लगीं कि ऊधोजी, हम अनाथ है श्रीकृष्ण बिन, तुम अपने साथ ले चलो।

श्रीशुकदेवजी बोले―महाराज, इतना बचन गोपियो के मुख से निकलतेही ऊधोजी ने कहा―जो संदेसा श्रीकृष्णचंद ने लिख भेजा है सो मैं समझाकर कहता हूँ, तुम चित दे सुनौ। लिखा है, तुम भोग की आस छोड़ जोग करो तुम से वियोग कभी न होगा, औ कहा है, निस दिन तुम करनी हो मेरा ध्यान, इससे कोई नहीं है प्रिय मेरे तुम समान।

इतना कह फिर अधोजी बोले—जो हैं आदि पुरुष अविनासी हरी, तिनसे तुमने प्रीति निरंतर करी। औ तिन्हें सब कोई अलख अगोचर अभेद बखाने, तिन्हें तुमने अपने कंत कर माने। पृथ्वी, पवन, पानी, तेज, आकाश का है जैसे देह में निवास, ऐसे प्रभु तुम में विराजते हैं, पर माया के गुन से न्यारे दिखाई देते हैं। उनका सुमिरन ध्यान किया करो, वे सदा अपने भक्त के बस रहते हैं, औ पास रहने से होता है ज्ञान ध्यान का नास, इस लिये हरि ने किया है दूर जाय के बास। औ मुझे यह भी श्रीकृष्ण चंद ने समझायके कहा है कि तुम्हें बेनु बजाय बन में बुलाया औ जब देखा मदन ओ बिरह का प्रकाश तब हमने तुम्हारे साथ मिलकर किया था रास।