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यथायोग दंडवत, प्रणाम, आशीरवाद लिखा औ सब ब्रजयुवतियो को जोग को उपदेस लिख ऊधो के हाथ दी औ कहा―यह पाती तुमहीं पढ़ सुनाइयो, जैसे बने तैसे उन सब को समझाय शीघ्र अइयो।

इतना संदेसा कह प्रभु ने निज वस्त्र, आभूषन, मुकुट पहराय, अपने ही रथ पर बैठाय, ऊधो जी को बृंदाबन बिदा किया। ये रथ हांके कितनी एक बेर में मथुरा से चले चले बृंदाबन के निकट जा पहुँचे, तो वहाँ देखने क्या हैं कि सघन सघन कुंजो के पेड़ों पर भाँति भाँति के पक्षी मनभावन बोलियाँ बोल रहे हैं, औ जिधर तिधर धौली; पीली, भूरी, काली गाये घटा सी फिरती हैं, औ ठौर ठौर गोपी गोप ग्वाल बाल श्रीकृष्णजस गाय रहे हैं।

यह सोभा निरख रखते औं प्रभु का बिहारस्थल जान प्रनाम करते ऊधोजी जों गाँव के ग्वेडे गये, तो किसी ने दूर से हरि का रथ पहिचान पास आय इनका नाम पूछ नंदुमहर से जा कहा कि महाराज, श्रीकृष्ण का भेष किये उन्हीं का रथ लिये कोई ऊधो नाम मथुरा से आया है।

इतनी बात के सुनतेही नंदराय जैसे गोपमंडली के बीच अथाई पर बैठे थे, तैसेही उठ धाए, औ तुरंत ऊधोजी के निकट आए। रामकृष्ण का संगी जान अति हित कर मिले औ कुशल क्षेम पूछ बड़े आदर मान से घर लिवाय ले गये। पहले पाँव धुलवाय आसन बैठने को दिया, पीछे षट्रस भोजन बनवाय ऊधोजी की पहुनई की। जब वे रुच से भोजन कर चुके, तब एक सथरी उज्जल फेन सी सेज बिछवा दी, तिसपर पान खाय जाय