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इतनी बात सुन नंदजी ने बड़ा दुख पाया औ नीचा सिर कर यह वचन सुनाया, कि सच है, ये वस्त्र अलंकार श्रीकृष्ण ने दिये, पर मुझे यह सुध नहीं जो किसने लिये, और मै कृष्ण की बात क्या कहूँगा, सुन कर तू भी दुख पावेगी।

कंस मार मो पै फिर आए। प्रीति हरन कहि बचन सुनाए॥
वसुदेव के पुत्र वे भए। कर मनुहार हमारी गए॥
हो तब महरि अचंभे रह्यो। पोषन भरने हमारी कह्यो॥

अब न महरि हरि सो सुत कहिये। ईश्वर जानि भजन करि रहिये॥

विसे तो हमने पहलेही नारायन जाना था, पर माया बस पुत्र कर माना। महराज, जद नंदरायजी ने सच सच बाते श्रीकृष्ण की कही कह सुनाई, तिस समै माया बस हो जसोदा रानी कभी तो प्रभु को अपना पुत्र जान मनहीं मन पछताय ब्याकुल हो हो रोती थीं, और इसी रीति से सब बृंदाबनबासी क्या स्त्री क्या पुरुष हरि के प्रेम रंग राते, अनेक अनेक प्रकार की बाते करते थे, सो मेरी सामर्थ नहीं जो मैं बरनन करूँ, इससे अब मथुरा की लीला कहता हूँ, तुम चित दे सुनो।

जब हलधर औ गोविंद नंदराय को बिदा कर वसुदेव देवकी के पास आए तब विन्होने इन्हें देख दुख भुलाय ऐसे सुख माना, कि जैसे तपी तप कर अपने तप का फल पाय सुख माने। आगे बसुदेवजी ने देवकी से कहा कि कृष्ण बलदेव पराये यहाँ रहे है, इन्होने विनके साथ खाया पिया है औ अपनी जात को ब्योहार भी नहीं जानते, इससे अब उचित है कि पुरोहित को बुलाय पूछें, जो वह कहे सो करे। देवकी बोली―बहुत अच्छा।

तद बसुदेवजी ने अपने कुलपूज गर्ग मुनिजी को बुला भेजा।

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