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प्रसन्न हो अपनी बृद्ध अवस्था दे उसकी युवा अवस्था ले बोले, कि तेरे कुल में राजगादी रहेगी। इससे नाना जी, हम यदुबंसी है हमें राज करना उचित नहीं।

करो बैठ तुम राज, दूर करहु संदेह सब।
हम करिहैं सब काज, जो आयसु दैहो हमें॥

जो न मानिहै आन तुम्हारी। ताहि दंड करिहैं हम भारी।
और कछू चित सोच न कीजै। नीति सहित परजहि सुख दीजै॥
यादव जितने कंस के त्रास। नगर छांड़ि कै गये प्रवास॥
तिनको अब कर खोज मॅगाओ। सुख दै मथुरा मांझ बसाओ॥
विप्र धेनु सुर पूजन कीजै। इनकी रक्षा में चित दीजै॥

इतनी कथा कह श्रीशुकदेव मुनि बोले कि धर्मावतार, महाराजाधिराज भक्तहितकारी श्रीकृष्णचंद ने उग्रसेन को अपना भक्त जान ऐसा समझाय सिहासन पर बिठाय राजतिलक दिया, औ छत्र फिरवाय दोनों भाइयों ने अपने हाथो चँवर किया।

उस काल सब नगर के बासी अति आनंद में मगन हो धन्य धन्य कहने लगे, और देवता फूल बरसावने। महाराज, यो उग्रसेन को राज पाट पर बिठाय दोनो भाई बहुत से वस्र आभूषन अपने साथ लिवाये वहाँ से चले चले नंदरायजी के पास आए, और सनमुख हाथ जोड़ खड़े हो अति दीनती कर बोले―हम तुम्हारी क्या वड़ाई करे जो सहस्र जीभ होय तौ भी तुम्हारे गुन का बखान हम से न हो सके। तुमने हमें अति प्रीति कर अपने पुत्र की भाँति पाला, सब लाड़ प्यार किया और जसोदा मैया भी वड़ा स्नेह करतीं, अपना हित हमही पर रखतीं, सदा निज पुत्र समान जानती, कभी मन से भी हमें पराया कर न मानतीं।