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कहैं परस्पर बचन उचारि। आवत हैं भलभद्र मुरारि॥
तिन्हें अक्रूर गये हैं लैन। चलहु सखी अब देखहिं नैन॥
को खात न्हात ते भजै। गुहत सीस कोऊ उठि तजे॥
काम केलि पिय की बिसरावे। उलटे भूषन बसने बनावे॥
जैसे ही तैसे उठि धाई। कृष्ण दरस देखने को आई॥

लाज कान डर डार, कोड खिरकिन कोउ अटन पर।
कोऊ खरी दुवार, कोउ दौरी गलियन फिरत॥

ऐसे जहाँ तहाँ खड़ी नारि। प्रभुहि बेताचे बाँह पसारि॥
नील बसन गोरे बलराम। पीतांबरे ओढ़े घनश्याम॥
ये भानजे कंस के दोऊ। इनते असुर बचौ नहि कोऊ॥
सुनते हुती पुरुषारथ जिनको। देखहु रूप नैन भरि तिनको॥
पूरब जन्म कुकृत कोउ कीन। सो बिधि दरसन फेल दीनौ॥

इतनी कथा कह श्रीशुकदेव मुनि बोले कि महाराज, इसी रीत से सब पुरबासी, क्या स्त्री क्या पुरुष, अनेक प्रकार की बातें कह कह दरसन कर मगन होते थे, और जिस हाद, बाट, चौहटे में हो सब समेत कृष्ण बलराम निकलते थे, तही अपने अपने कोठी पर खड़े इन पर चोवा चंदन छिड़क छिड़क आनंद से वे फूल बरसावते थे औ ये नगर की शोभा देख देख ग्वालबालो से यो कहते जाते थे—भैया, कोई भूलियो मत औ जो कोई भूले तो पिछले डेरों पर जाइयो। इसमें कितनी एक दूर जाय के देखते क्या हैं, कि कंस के धोबी धोए कपड़ों की लादिया लादे, पोटे मोटे लिए, मद पिये, रंग राते, कंस जस गाते, नगर के बाहर से चले आते है। उन्हें देख श्रीकृष्णचंद ने बलदेवजी से कहा कि भैया, इनके सच चीर छीन लीजिए, और आप पहर