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शोभा इकटक निरख अपने नैन चकोरो को सुख दूँगा, कि जिस का ध्यान ब्रह्मा, इंद्र, आदि सब देवता सदा करते है।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, इसी भाँति सोच विचार करते रथ हाँके इधर से तो अक्रर जी गये औ उधर बन से गौ चराय, ग्वाल-बाल समेंत कृष्ण बलदेव भी आए, तो इनसे उनसे वृंदावन के बाहरही भेट भई। हरि छबि दूर से देखते ही अक्रूर रथ से उतर अति अकुलाय दौड़ उनके पाँओ पर जा गिरा, औ ऐसा मगन हुआ कि मुँह से बोल न आया, महा आनंद कर नैनो से जल बरसावने लगा, तब श्रीकृष्णजी उसे उठाय अति प्यार से मिल हाथ पकड़ घर लिवाय ले गये। वहाँ नंदराय अक्रूरजी को देखतेही प्रसन्न हो उठकर मिले औ बहुत सा दर मान किया, पाँव धुलवाय आसन दिया।

लिये तेल मरदनियाँ आए। उबटि सुगंध चुपरि अन्याए।
चौका पटा जसोदा दियो। षटरस रुचि सो भोजन कियौ॥

जब अचायके पान खाने बैठे तब नंदजी उनसे कुशल क्षेम पूछ बोले, कि तुम तो यदुवंशियों में बड़े साध हो औं वहाँ के लोगों की क्या गति है, सो सब भेद कहो। अक्रूरजी बोले―

जबते केस मधुपुरी भयौ। तबते सुबह कौ दुख दुयौ॥
पूछौ कहा नगर कुशलात। परजी दुखी होत है गात॥
जौ लौ है मथुरा में कंस। तौ लौ कहाँ बचे यदुबंस॥
पशु मेढे छेरीन कौ, ज्यौ खटीक रिपु होइ।
त्यो परजी को कंस है, दुख पावे सब कोइ॥

इतना कह फिर बोले कि तुम तो कंस का व्योहार जानते हो। हम अधिक क्या कहेंगे।

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