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प्रथम दियौ सुत आनिकै, मन परतीत बढ़ाय।
जो ठग कछू दिखाई कै, सर्वसु ले भजि जाय॥

इतना कह वसुदेव को बुलाय पकड़ बाँँधा औ खांड़े पर हाथ रख अकुला कर बोला।

मिला रहा कपटी तू मुझे। भेला साध जाना मैं तुझे॥
दिया नंद के कृष्ण पठाय। देवी हमें दिखाई आय॥
मन में कुछ कही मुख और। आज अवश्य मारूं इहि ठौर॥
मित्र सगो सेवक हितकारी। करै कपट सो पापु भारी॥
मुख मीठा मन विष भरा, रहे कपट के हेत।
आप काज पर द्रोहिया, उससे भला जु प्रेत॥

ऐसे बेक झक फिर कंस नारदजी से कहने लगा कि महाराज, हमने कुछ इसके मन का भेद ने पाया, हुआ लड़का औ कन्या को ला दिखाया, जिसे कहा अधूरा गया, सोई जा गोकुल में बलदेव भया। इसना कह क्रोध कर ओठ चबाय खड़क उठाय जो चाहा कि वसुदेव को मारूँ, तो नारद मुनि ने हाथ पकड़कर कहा―राजा, बसुदेव को तो तू रख आज, औ जिसमें कृष्ण बलदेव आवे सो कर काज। ऐसे समझाय बुझाय जब नारद मुनि चले गये, तब कंस ने बसुदेव देवकी को तो एक कोठड़ी में मूँद दिया औ आप भयातुर हो केसी नाम राक्षस को बुलाके बोला।

महा बली तू साथी मेरा। बड़ा भरोसा मुझको तेरा।
एक बार तू ब्रज में जा। रामकृष्ण हनि मुझे दिखा॥

इतना बचन सुनतेही केसी तो आज्ञा पा विदा हो दंडवत कर वृंदावन को गया है कंस ने साल, तुसाल, चानूर, अरिष्ठ, ब्योमासुर, आदि जितने मंत्री थे सब को बुला भेजा। वे आए,