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तेतीसवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जद श्रीकृष्णचंद अंतरजामी ने जाना जो अब ये गोपियाँ मुझ बिन जीती न बचगी।

तब तिनहीं में प्रगट भये नंदनंदन यौं।
दृष्टबंध कर छिपै फेर प्रगटै नटवर जौं॥
आए हरि देखे जबै, उठी सबै थौं चैत।
प्रान परे ज्यौ मृतक में, इंद्री जयें अंधेत॥
बिन देखे सबकौ भन व्याकुल हो भयौ।
मानो मनमथ भुवंग सबनि डसि कै गयौ॥
पीर खरी पिय जान पहुँचे आई है।
अमृत बेलनि सीच लई सब जाइ कै॥
मनलु कमल निसि मलिन, हैं, ऐसेही ब्रजबाल।
कुंडल रवि छबि देखिकै, फूले नैन बिसाल॥

इतनी कथा कथे श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराजश्रीकृष्णचंद आनंदकंद को देखतेही सब गोपियाँ एकाएकी विरहसागर से निकल उनके पास जाय ऐसे प्रसन्न हुईं कि जैसे कोई अथाह समुद्र में डूब थाह पाय प्रसन्न होय। और चारों ओर से घेरकर खड़ी भई। तब श्रीकृष्ण उन्हें साथ लिये वहाँ आए जहाँ पहले रास विलास किया था। जातेही एक गोपी ने अपनी ओढ़नी उतार के श्रीकृष्ण के बैठने को बिछा दी। जों वे उस पर बैठे तो कई एक गोपी क्रोध कर बोलीं कि महाराज, तुम बड़े कपटी