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मुख से सुमतेही सब गोपी एक बार तो अचेत हो अपार सोच सागर में पड़ीं, पीछे―

नीचे चितै उसासे लई। पद नख तें भौं खोदत भईं।
या दृग सो छूटी जलधारा। मानहु छूटे मोतीहारा।

निदान दुख से अति घबराय रो रो कहने लगी कि अहो कृष्ण, तुम बड़े ठग हो, पहले तो बंसी बजाय अचानक हमारा ज्ञान ध्यान मन धन हर लिया, अब निंदेई होय कपट कर कर्कस बचन कह प्रान लिया चाहते हो। यो सुनाय पुनि बोलीं―

लोग कुटुम थर पति तजें, तेजी लोक की लाज।
हैं अनाथ, कोऊ नहीं, राखि सरन ब्रजराज॥

औ जो जन तुम्हारे चरनों में रहते हैं सो धन तन लाज बड़ाई नहीं चाहते विनके तो तुम्हीं हो जन्म जन्म के कंत, हे प्रानरूप भगवंत।

करिहैं कहा जाय हुम गेह। अरुझे प्रान तुम्हारे नेह॥

इतनी बात के सुनतेही श्रीकृष्णचंद ने मुसकुराय सब गोपियो का निकट बुलायके कहा―जो तुम राची हो इस रंग, तो खेलो रास हमारे संग। यह बचन सुन दुख तज दोपी प्रसन्नता से चारों और घिर आईं औ हारिमुख निरख निरख लोचन सुफल करने लगीं।

ठाढ़े बीच जु स्याम घन, इहि बिधि काछिनि केलि॥
मनहुँ नील निरि तरे तें, उलही कंचन बेलि॥

आगे श्रीकृष्णजी ने अपनी माया की आज्ञा की कि हम रास करेंगे उसके लिये तू एक अच्छा स्थान रच औ यहाँ खड़ी रहे, जो जो जिस जिंस क्स्तु की इच्छा करै सो सो ला दीजो। महाराज, बिसने सुनतेही जंमुना के तीर जाय एक कंचन का मंडला-