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चीर लो। जद श्रीकृष्णचन्द ने ऐसे कहा तद सब गोपी आपस में सोच विचारकर कहने लगी कि चलो सखी, जो मोहन कहते है सोई माने, क्योकि ये हमारे तन मन की सब जानते हैं, इनसे लाज क्या। यो आपस में ठान श्रीकृष्ण की बात मान, हाथ से कुच देह दुराय सब युवती नीर से निकल, सिर नौढ़ाय जब सनमुख तीर पर जा खड़ी हुईं, तब श्रीकृष्ण हँसके बोले कि अब तुम हाथ जोड़ जोड़ आगे आओ तो में वस्त्र दूँ। गोपी बोली―

काहे कपट करत नँदलाल। हम सूधी भोरी ब्रजबाल॥
परी ठगोरीं सुधि बुधि गई। ऐसी तुम हरि लीला ठई॥
मन सँभारि के करिहै लाज। अब तुम कछू करो ब्रजराज॥

इतनी बात कह जद गोपियों ने हाथ जोड़े तो श्रीकृष्णचंदजी ने वस्त्र दे उसके पास आय कहा कि तुम अपने मन में कुछ इस बात का बिलग मत मानो, यह मैंने तुम्हे सीख दी है, क्योंकि जल में बरुन देवता का बास है, इससे जो कोई नग्न हो जल में न्हाता है विसका सब धर्म बह जाता है। तुम्हारे मन की लगन देख मगन हो मैने यह भेद तुमसे कहा। अब अपने घर जाओ, फिर कात्तिक महीने में आय मेरे साथ रास कीजियो।

श्रीशुकदेव मुनि बोले कि महाराज, इतना वचन सुन प्रसन्न हो संतोष कर गोपी तो अपने घरों को गईं औ श्रीकृष्ण बंसीवट में आय गोप गाय ग्वाल बाल सखाओं को संग ले आगे चले, तिस समै चारों ओर सघन बन देख देख वृक्षों की बड़ाई करने लगे कि देखो ये संसार में आ अपने पर कितना दुख सह लोगो को सुख देते है। जगत् में ऐसे ही परकाजियो का आना सुफल है। यों कह आगे बढ़ जमुना के निकट जा पहुँचे।