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88 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


ऐसी ही इच्छा हो, तो मुझे गोली मार दीजिए।

रमेश ने एक क्षण तक कुछ सोचकर कहा-तुम्हें विश्वास है, शाम तक रुपये मिल जाएंगे?

रमानाथ–हां, आशा तो है।

रमेश–तो इस थैली के रुपये जमा कर दो, मगर देखो भाई, मैं साफ-साफ कहे देता हूँ, अगर कल दस बजे रुपये न लाए तो मेरा दोष नहीं। कायदा तो यही कहता है कि मैं इसी वक्त तुम्हें पुलिस के हवाले करूं मगर तुम अभी लड़के हो, इसलिए क्षमा करता हूं। वरना तुम्हें मालूम है, मैं सरकारी काम में किसी प्रकार की मुरौवत नहीं करता। अगर तुम्हारी जगह मेरा भाई या बेटा होता, तो मैं उसके साथ भी यहीं सलूक करता, बल्कि शायद इससे सख्त। तुम्हारे साथ तो फिर भी बड़ी नर्मी कर रहा हूं। मेरे पास रुपये होते तो तुम्हें दे देता, लेकिन मेरी हालत तुम जानते हो। हां, किसी का कर्ज नहीं रखता। न किसी को कर्ज देता हूं, न किसी से लेता हूँ। कल रुपये न आए तो बुरा होगा। मेरी दोस्ती भी तुम्हें पुलिस के पंजे से न बचा सकेगी। मेरी दोस्ती ने आज अपना हक अदा कर दिया वरना इस वक्त तुम्हारे हाथों में हथकड़ियां होती।

हथकड़ियां ! यह शब्द तीर की भाँति रमा की छाती में लगा। वह सिर से पांव तक कांप उठा। उस विपत्ति की कल्पना करके उसकी आंखें डबडबा आईं। वह धीरे- धीरे सिर झुकाए, सजा पाए हुए कैदी की भांति जाकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया; पर यह भयंकर शब्द बीच-बीच में उसके हृदय में गंज जाता था। आकाश पर काली घटाएं छाई थीं। सूर्य का कहीं पता न था, क्या वह भी उस पटारूपी कारागार में बंद है, क्या उसके हाथों में भी हथकड़ियां हैं?

बीस

रमा शाम को दफ्तर से चलने लगा, तो रमेश बाबू दौड़े हुए आए और कल रुपये लाने की ताकीद की । रमा मन में झुंझला उठा। आप बड़े ईमानदार की दुम बने हैं। ढोंगिया कहीं का । अगर अपनी जरूरत आ पड़े, तो दूसरों के तलवे सहलाते फिरेंगे: पर मेरा काम है, तो आप आदर्शवादी बन बैठे। यह सब दिखाने के दांत हैं, मरते समय इसके प्राण भी जल्दी नहीं निकलेंगे ।

कुछ दूर चलकर उसने सोचा, एक बार फिर रतन के पास चलें। और ऐसी कोई न था जिससे रुपये मिलने की आशा होती। वह जब उसके बंगले पर पहुंचा, तो वह अपने बगीचे में गोल चबूतरे पर बैठी हुई थी। उसके पास ही एक गुजराती जौहरी बैठा संदूक से सुंदर आभूषण निकाल-निकालकर दिखा रहा था। रमा को देखकर वह बहुत खुश हुई। ‘आइये बाबू साहब, देखिए सेठजी कैसी अच्छी-अच्छी चीजें लाए हैं। देखिए, हार कितना सुंदर है, इसके दाम बारह सौ रुपये बताते हैं।'

रमा ने हार को हाथ में लेकर देखा और कही-हां, चीज तो अच्छी मालूम होती है !

रतन-दाम बहुत कहते हैं।

जौहरी - बाईजी, ऐसा हार अगर कोई दो हजार में ला दे, तो जो जुर्माना कहिए, दूं। बारह