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74 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


दिल्लगी ! दुकान नीलाम करा दूंगी। जेल भिजवा देंगी। इन बदमाशों से लड़ाई के बगैर काम नहीं चलता।

रमा अप्रतिभ होकर जमीन की ओर ताकने लगा। वह कितनी मनहूस घड़ी थी, जब उसने रतन से रुपये लिए । बैठे-बिठाए विपत्ति मोल ली।

जालपा ने कहा-सच तो है, इन्हें क्यों नहीं सराफ की दुकान पर ले जाते, चीज आंखों से देखकर इन्हें संतोष हो जायेगा।

रतन-मैं अब चीज लेना ही नहीं चाहती।

रमा ने कांपते हुए कहा-अच्छी बात है, आपको रुपये कल मिल जायेंगे।

रतन-कल किस वक्त?

रमानाथ-दफ्तर से लौटते वक्त लेता आऊंगा।

रतन–पूरे रुपये लूंगी। ऐसा न हो कि सौ-दो सौ रुपये देकर टाल दे।

रमानाथ-कल आप अपने सब रुपये ले जाइएगा।

यह कहता हुआ रमा मरदाने कमरे में आया, और रमेश बाबू के नाम एक रुक्का लिखकर गोपी से बोला-इसे रमेश बाब के पास ले जाओ। जवाब लिखते आना।

फिर उसने एक दूसरा रुक्का लिखकर विश्वम्भरदास को दिया कि माणिकदास को दिखाकर जवाब लाए।

विश्वम्भर ने कहा-पानी आ रहा है।

रमानाथ–तो क्या सारी दुनिया बह जाएगी । दौड़ते हुए जाओ।

विश्वम्भर-और वह जो घर पर न मिलें?

रमानाथ-मिलेंगे। वह इस वक्त कहीं नहीं जाते।

आज जीवन में पहला अवसर था कि रमा ने दोस्तों से रुपये उधार मांगे। आग्रह और विनय के जितने शब्द उसे याद आये, उनका उपयोग किया। उसके लिए यह बिल्कुल नया अनुभव था। जैसे पत्र आज उसने लिखे, वैसे ही पत्र उसके पास कितनी ही बार आ चुके थे। उन पत्रों को पढ़कर उसका हृदय कितना द्रवित हो जाता था; पर विवश होकर उसे बहाने करने पड़ते थे। क्या रमेश बाबू भी बहाना कर जायंगे? उनकी आमदनी ज्यादा है, खर्च कम, वह चाहें तो रुपये का इंतजाम कर सकते हैं। क्या मेरे साथ इतना सुलक भी न करेंगे? अब तक दोनों लड़के लौटकर नहीं आए। वह द्वार पर टहलने लगा। रतन की मोटर अभी तक खड़ी थी। इतने में रतन बाहर आई और उसे टहलते देखकर भी कुछ बोली नहीं। मोटर पर बैठी और चल दी।

दोनों कहां रह गए अब तक कहीं खेलने लगे होंगे। शैतान तो हैं ही। जो कहीं रमेश रुपये दे दें, तो चांदी है। मैंने दो सौ नाहक मांगे, शायद इतने रुपये उनके पास न हों। ससुराल वालों की नोच-खसोट से कुछ रहने भी तो नहीं पाता। माणिक चाहे तो हजार-पांच सौ दे सकता है,लेकिन देखा चाहिए, आज परीक्षा हो जायगी। आज अगर इन लोगों ने रपये न दिए, तो फिर बात भी न पूछेगा। किमी का नौकर नहीं हूँ की जब वह शतरंज खेलने को बुलायें तो दौड़ा चला जाऊं। रमा किसी की आहट पाता, तो उसका दिल जोर से धड़कने लगता था। आखिर विश्वम्भर लौटा, माणिक ने लिखा था-आजकल बहुत तंग हूं। मैं तो तुम्हीं से मांगने वाला था।

रमा ने पुर्जा फाड़कर फेंक दिया। मतलबी कहीं का ! अगर सब-इंस्पेक्टर ने मांगा होता तो पुर्जा देखते ही रुपये लेकर दौड़े जाते। खैर, देखा जायगा। चुंगी के लिए माल तो आयगी ही।