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60 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


संध्या समय जब जालपा ने नई साड़ी और नए जूते पहने, घड़ी कलाई पर बांधी और आईने में अपनी सूरत देखी, तो मारे गर्व और उल्लास के उसकी मुखमंडल प्रज्वलित हो उठा। उसने उन चीजों के लौटाने के लिए सच्चे दिल से कहा हो, पर इस समय वह इतना त्याग करने को तैयार न थी। संध्या समय जालपा और रमा छावनी की ओर चले। महिला ने केवल बंगले का नंबर बतला दिया था। बंगला आसानी से मिल गया। फाटक पर साइनबोर्ड था-' इन्दुभूषण, ऐडवोकेट, हाईकोर्ट।' अब रमा को मालूम हुआ कि वह महिला पं० इन्दुभूषण की पत्नी थी। पंडितजी काशी के नामी वकील थे। रमा ने उन्हें कितनी ही बार देखा था, पर इतने बड़े आदमी से परिचय का सौभाग्य उसे कैसे होता । छ: महीने पहले वह कल्पना भी न कर सकता था, कि किसी दिन उसे उनके घर निमंत्रित होने का गौरव प्राप्त होगा; पर जालपा की बदौलत आज वह अनहोनी बात हो गई। वह काशी के बड़े वकील का मेहमान था।

रमा ने सोचा था कि बहुत से स्त्री-पुरुष निमंत्रित होगे, पर यहां वकील साहब और उनकी पत्नी रतन के सिवा और कोई न था। रतन इन दोनों को देखते ही बरामदे में निकल आई और उनसे हाथ मिलाकर अंदर ले गई और अपने पति से उनका परिचय कराया। पंडितजी ने आरामकुर्सी पर लेटे-ही-लेटे दोनों मेहमानों से हाथ मिलाया और मुस्कराकर कहा–क्षमा कीजिएगा बाबू साहब, मेरा स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। आप यहां किसी आफिस में हैं।

रमा ने झेंपते हुए कहा-जी हां, म्युनिसिपल आफिस में हूं। अभी हाल ही में आया है। कानून की तरफ जाने का इरादा था, पर नए वकीलों की यहां जो हालत हो रही है, उसे देखकर हिम्मत न पड़ी।

रमा ने अपना महत्त्व बढ़ाने के लिए जरा-सा झूठ बोलना अनुचित न समझा। इसका असर बहुत अच्छा हुआ। अगर वह साफ कह देता, मैं पच्चीस रुपये का क्लर्क हूँ, तो शायद वकील साहब उससे बातें करने में अपना अपमान समझते। बोले-अपने बहुत अच्छा किया जो इधर नहीं आए। वहां दो-चार साल के बाद अच्छी जगह पर पहुंच जाएंगे, यह संभव है दस साल तक आपको कोई मुकदमा ही न मिलता।

जालपा को अभी तक संदेह हो रहा था कि इतने वकील साहब की बेटी है या पत्नी। वकील साहब की उम्र साठ से नीचे न थी। चिकनी चांद आस-पास के सफेद बालों के बीच में वारनिश की हुई लकड़ी की भांति चमक रही थी। मूछें साफ थीं, पर माथे की शिकन और गालों की झुर्रियां बतला रही थीं कि यात्री संसार-यात्रा से थक गया है। आरामकुर्सी पर लेटे हुए वह ऐसे मालूम होते थे, जैसे बरसों के मरीज हों ! हां, रंग गोरा था, जो साठ साल की गर्मी-सर्दी खाने पर भी उड़ न सका था। ऊंची नाक थी, ऊंचा माथा और बड़ी-बड़ी आंखें, जिनमें अभिमान भरा हुआ था। उनके मुख से ऐसा भासित होता था कि उन्हें किसी से बोलना या किसी बात का जवाब देना भी अच्छा नहीं लगता। इसके प्रतिकूल सांवली, सुगठित युवती थी, बड़ी मिलनसार, जिसे गर्व ने छुआ तक न था। सौंदर्य का उसके रूप में कोई लक्षण न था। नाक चिपटी थी, मुख गोल, आंखें छोटी, फिर भी वह रानी-सी लगती थी। जालपा उसके सामने ऐसी लगती थी, जैसे सूर्यमूखी के सामने जूही का फूल।

चाय आई। मेवे, फल, मिठाई, बर्फ की कुल्फी, सब मेजों पर सजा दिए गए। रतन और जालपा एक मेज पर बैठीं। दूसरी मेज रमा और वकील साहब की थी। रमा मेज के सामने जा