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58 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


वह जबरदस्ती उसको परदे में बैठाता। उसके साथ घूमने या बैठने में उसे शर्म आती। जालपा-जैसी अनन्य सुंदरी के साथ सैर करने में आनंद के साथ गौरव भी तो था। वहां के सभ्य समाज की कोई महिला रूप, गठन और श्रृंगार में जालपा की बराबरी न कर सकती थी। देहात की लड़की होने पर भी शहर के रंग में वह इस तरह रंग गई थी, मानो जन्म से शहर ही में रहती आई है। थोड़ी-सी कमी अंग्रेजी शिक्षा की थी, उसे भी रमा पूरी किए देता था।

मगर परदे का यह बंधन टूटे कैसे। भवन में रमा के कितने ही मित्र, कितनी ही जान पहचान के लोग बैठे नजर आते थे। वे उसे जालपा के साथ बैठे देखकर कितना हंसेंगे। आखिर एक दिन उसने समाज के सामने ताल ठोंककर खड़े हो जाने का निश्चय कर ही लिया। जालपा से बोला-आज हम-तुम सिनेमाघर में साथ बैठेंगे।

जालपा के हृदय में गुदगुदी-सी होने लगी। हार्दिक आनंद को आभा चेहरे पर झलक उठी। बोली-सच नहीं भाई, साथवालियां जीने न देंगी।

रमानाथ—इस तरह डरने से तो फिर कभी कुछ न होगा। यह क्या स्वांग है कि स्त्रियां मुंह छिपाए चिक की आड़ में बैठी रहें। इस तरह यह मामला भी तय हो गया। पहले दिन दोनों झेपते रहे, लेकिन दूसरे दिन से हिम्मत खुल गई। कई दिनों के बाद वह समय भी आया कि रमा और जालपा संध्या समय पार्क में साथ-साथ टहलते दिखाई दिए।

जालपा ने मुस्कराकर कहा-कहीं बाबूजी देख लें तो?

रमानाथ–तो क्या, कुछ नहीं।

जालपा-मैं तो मारे शर्म के गड़ जाऊं।

रमानाथ-अभी तो मुझे भी शर्म आएगी, मगर बाबूजी खुद ही इधर न आएंगे।

जालपा-और जो कहीं अम्मांजी देख लें।

रमानाथ-अम्मां से कौन डरता है, दो दलीलों में ठीक कर दूंगा। दस ही पांच दिन में जालपा ने नए महिला-समाज में अपना रंग जमा लिया। उसने इस समाज में इस तरह प्रवेश किया, जैसे कोई कुशल वक्ता पहली बार परिषद् के मंच पर आता है। विद्वान् लोग उसकी उपेक्षा करने की इच्छा होने पर भी उसकी प्रतिभा के सामने सिर झुका देते हैं। जालपा भी आई, देखा और विजय कर लिया। उसके सौंदर्य में वह गरिमा, वह कठोरता, वह शान, वह तेजस्विता थी जो कुलीन महिलाओं के लक्षण हैं। पहले ही दिन एक महिला ने जालपा को चाय का निमंत्रण दे दिया और जालपा इच्छा न रहने पर भी उसे अस्वीकार न कर सकी।

जब दोनों प्राणी वहां से लौटे, तो रमा ने चिंतित स्वर में कहा-तो कल इसकी चाय-पार्टी में जाना पड़ेगा?

जालपा-क्या करती? इंकार करते भी तो न बनता था ।

रमानाथ–तो सबेरे तुम्हारे लिए एक अच्छी-सी साड़ी लादूं।

जालपा-क्या मेरे पास साड़ी नहीं है, जरा देर के लिए पचास-साठ रुपये खर्च करने से फायदा ।

रमानाथ-तुम्हारे पास अच्छी साड़ी कहां है। इसकी साड़ी तुमने देखी? ऐसी ही तुम्हारे लिए भी लाऊंगा।