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496:प्रेमचंद रचनावली-5
 

में जाकर हम एक क्षण के लिए कितने दीनदार, कितने परहेजगार बन जाते हैं। हमारे घर में आकर यदि देवता हमारा असली रूप देखे, तो शायद हमसे नफरत करने लगे। सलीम को मैं संभाल सकती हूं। वह इसी दुनिया के आदमी हैं, और मैं उन्हें समझा सकती हैं। उसी वक्त जनाने वार्ड के द्वार खुले और तीन कैदी अंदर दाखिल हुए। तीनों ने घुटनों तक जाँघए और आधी बांह के ऊंचे कुरते पहने हुए थे। एक के कंधे पर बांस की सीढ़ी थीं, एक के सिर पर चूने का बोरा। तीसरा चूने की हॉडिया, कूची और बाल्टियां लिए हुए था। आज से जनाने जेल की पुताई होगी। सालाना सफाई और मरम्मत के दिन आ गए हैं। यकीना ने कैदियों को देखते ही उछलकर कहा-वह तो जैसे बाबूजी हैं, डोल और रस्सी लिए हए, तो सलीम सीढी उठाए हए हैं। | यह कहते हुए उसने बालक को गोद में उठा लिया और उसे भींच- भींचकर प्यार करती हुई द्वार की ओर लपकी। बार-बार उसका मुंह चूमती और कहती जाती थी-चलो, तुम्हारे बाबूजी हुए हैं। | सुखदा भी आ रही थी, पर मंद गति से उसे रोना आ रहा था। आज इतने दिनों के बाद मुलाकात हुई तो इस दशा में। | सहसा मुन्नी एक ओर से दौड़ती हुई आई और अमर के हाथ से डोल और रस्मी छीनती हुई बोली--अरे ! यह तुम्हारा क्या हाल है लाला, आधे भी नहीं रहे, चलो आराम से बैठो, मैं पानी खींच देती हूं। | अमर ने डोल को मजबूती से पकड़कर कहा-नहीं-नहीं, तुमसे न बनेगा। छोड़ दो डोन्न जेलर देखेगा, तो मेरे ऊपर डांट पड़ेगी। मुन्नी ने डोल छीनकर कहा-मैं जेलर को जवाब दे लूंगी। ऐसे ही थे तुम वहां? एक तरफ से सकोना और सुखदा, दूसरी तरफ से पठानिन और रेणुका आ पहुंचीं, पर किसी के मुंह से बात न निकलती थी। सबों की आंखें सजन्न थीं और गले भरे हुए। चली थी हर्ष के आदेश में पर हर पग के साथ मानो जल गहरी होते-होते अत को सिरों पर आ पहुंचा। । अमर इन देवियों को देखकर विस्मये-भरे गर्व से फूल उठा। उनके सामने वह कितना तुच्छ था, कितना नगण्य। किन शब्दों में उनकी स्तुति करे, उनकी भेंट क्या चढाए? उसके आशावादी नेत्रों में भी राष्ट्र का भविष्य कभी इतना उज्ज्वल १ था। उनके सिर से पांव तक स्वदेशाभिमान की एक बिजली-सी दौड़ गई। भक्ति के आंसू आंखों में छलक आए। औरों की जेल-यात्रा का समाचार तो वह सुन चुका था, पर रेणुका को वहां देखकर वह जैसे उन्मत्त होकर उनके चरणों पर गिर पड़ा। | रेणुका ने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देते हुए कहा-आज चलते-चलते तुमसे खुब भेंट हो गई बेटा ! ईश्वर तुम्हारी मनोकामना सफल करे। मुझे तो आए आज पांचवां दिन है, पर हमारी रिहाई का हुक्म आ गया। नैना ने हमें मुक्त कर दिया। | अमर ने धड़कते हुए इदय से कहा-तो क्या वह भी यहां आई है? उसके घर वाले ती बहुत बिगड़े होंगे? सभी देवियां रो पड़ीं। इस प्रश्न ने जैसे उनके हृदय को मसोस दिया। अमर ने चकित ने से हरेक के मुंह की ओर देखा। एक अनिष्ट शंका से उसकी सारी देह थरथरा उठी। इन