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488:प्रेमचंद रचनावली-5
 

पड़ेगा। मैं यह दावा नहीं करता कि तुम्हारी जीत ही होगी। जीत भी हो सकती है, हार भी हो सकती है। जीत या हार से हमें प्रयोजन नहीं। भूखा बालक भूख से विकल होकर रोता है। वह यह नहीं सोचता कि रोने से उसे भोजन मिल ही जाएगा। संभव है मां के पास पैसे न हों, या उसकी जी अच्छा न हो, लेकिन बालक को स्वभाव है कि भूख लगने पर रोए इसी तरह हम भी रो रहे हैं। हम रोते-रोते थककर सो जाएंगे, या माता वात्सल्य से विवश होकर हमें भोजन दे देगी, यह कौन जानता है? हमारा किसी से बैर नहीं, हमें तो समाज के सेवक हैं, हम बैर करना क्या जाने " उधर पुलिस कप्तान थानेदार को डांट रहा था-जल्द लारी मंगवाओ। तुम बोलता था अब कोई आदमी नहीं है। अब यह कहां से निकल आया? थानेदार ने मुंह लटकाकर कहा-हुजूर, यह डॉक्टर साहब तो आज पहली ही बार आए हैं। इनकी तरफ तो हमारा मान भी नहीं था। कहिए तो गिरफ्तार करके तांगे पर ले चले। "तांगे पर ! सब आदमी तागे को घेर लेगा ! हमें फायर करना पड़ेगा। जल्दी दौडकः कोई टैक्सी लाओ।" डॉक्टर शान्तिकुमार कह रहे थे । हमारा किसी से वैर नहीं है। जिस समाज में गरीबों के लिए स्थान नहीं, वह उम् घर की तरह है जिसकी बुनियाद न हो । कोई हल्का-सा धक्का भी उसे जमीन पर गिरा सकता है। मैं अपने धनवान् और विद्वान् और सामर्थ्यवान् भाइयों से पूछता हूं, क्या यही न्याय हैं कि एक भाई तो बंगले में रहे, दूसरे को झोपड़े भी नसीब न हो? क्या तुम्हें अपने ही जैसे मनुष्यो को इस दुर्दशा में देखकर शर्म नहीं आती? तुम कहोगे, हमने बुद्धि-बल से धन कमाया हैं, क्यों न उसका भोग करें? इस बुद्धि का नाम स्वार्थ-बुद्धि है, और जब समाज का पंचानन स्वार्थ-बुद्धि के हाथ में आ जाता है, न्याय-बुद्धि गद्दी से उतार दी जाती है, तो समझ लो कि समाज में कोई विप्लव होने चाला है। गर्मी बढ़ जाती है, तो तुरत ही आंधी आती है। मानवता हमेशा कुचली नहीं जा सकती। समता जीवन का तत्व है। यही एक दशा है, जो समाज का स्थिर रख सकती है। थोड़े-से धनवानों को हरगिज यह अधिकार नहीं है कि वे जनता की ईश्वरदत्त वायु और प्रकाश का अपहरण करे। यह विशाल जनसमूह उसी अनधिकार, उसी अन्याय का धमय रुदन है। अगर धनवानों की आंखें अब भी नहीं खुलतीं, तो उन्हें पछताना पड़ेगा। यह जागृति का युग हैं। जागृति अन्याय को सहन नहीं कर सकती। जागे हुए आदमी के घर में चोर और डाकू की गति नहीं । इतने में टैक्सी आ गई। पुलिस कप्तान कई थानेदारों और कांस्टेबलों के साथ समूह की तरफ चला। थानेदार ने पुकारकर कहा-डॉक्टर साहब, आपका भाषण तो समाप्त हो चुका होगा। अब चले आइए, हमें क्यों वहां आना पड़े? शान्तिकुमार ने ईंट-मंच पर खड़े-खड़े कहा- मैं अपनी खुशी से तो गिरफ्तार होने न आऊंगा, आप जबरदस्ती गिरफ्तार कर सकते हैं। और फिर अपने भाषण का सिलसिला जारी कर दिया। हमारे धनवानों को किसका बन है? पुलिस का। हम पुलिस ही से पूछते हैं, अपने कांस्टेबल भाइयों से हमारा सवाल है, ध्या तुम भी गरीब नहीं हो? क्या तुम और तुम्हारे बाल-