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कर्मभूमि:483
 

खुदगरेजी से दुश्मनी हैं। | सलीम को यह कथन तत्त्वहीन मालूम हुआ। मुंह बनाकर बोला--हुजूर को मालूम रहे कि दुनिया में फरिश्ते नहीं बसते, आदमी बसते हैं। अमर ने शांत-शीतल हदय में जवाब दिया--लेकिन क्या तुम देख नहीं रहे हो कि हमारी इंसानियत सदियों तक खून और कत्ल में इन्ने रहने के बाद अब सच्चे रास्ते पर आ रही है? उसमें यह ताकत कहां से आई? उसमें खुद वह दैवी शक्ति मौजूद है। उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता। बड़ी-से-बड़ी फौजी ताकत भी उसे कुचल नहीं सकती, जैसे सूखी जमीन में घास की जड़ें पड़ी रहती हैं और ऐसा मालूम होता है कि जमीन साफ हो गई, लेकिन पानी के छींटे पड़ते ही वह जड़ें पनप उटती हैं, हरियाली से माग मैदान लहराने लगती हैं, उसी तरह इस कलों और हथियारों और खुदगजियों के जमाने में भी हममें वह दैवी शक्ति छिपी हुई अपना काम कर रही है। अब वह जमाना आ गया है, जब हक की आवाज तलवार की झंकार या नोप की गरज से भी ज्यादा कारगर होगी। बड़ी-बड़ी कीमें अपनी-अपनी फौजी और जहाजी ताकतें घटा रही हैं। क्या तुम्हें इससे आने वाले जमाने का कुछ अंदाज नहीं होता? हम इसलिए गुलाम हैं कि हमने खुद गुलामी की बेड़ियां अपने पैरों में डाल ली हैं। जानते हो कि यह बेड़ी क्या हैं? गम का भेद। 'जन्नं तक हम इस बड़ी को काटकर प्रेम न करना सीखेंगे. सेवा में ईश्वर का रूप न देखेंगे, हम गुलामी में पड़े रहंगे। मैं यह नहीं कहता कि जब तक भारत का हरेक व्यक्ति इतना बेदार न हो जाएगा, तब तक हमारी नजात न होगी। ऐसा तो शायद कभी न हो, पर कम-से-कम उन लोगों के अंदर ता यह रागनी आनी ही चाहिए, जो कोम के सिपाही बनते हैं। पर हममें कितने ऐसे हैं, जिन्होंने अपने दिल को प्रेम से रोशन किया हो? हममें अब भी वही ऊंच-नीच का भाव है, वही स्वार्थ-लिप्सा हैं, वही अहंकार है। बाहर ठंड पड़ने लगी थी। दोनों मित्र अपनी-अपनी कोरियों में गए। सलीम जवाब देने के लिए उतावला हो रहा था, पर वाई' ने जल्दी की और उन्हें उठना पड़ा। दरवाजा बंद हो गया, तो अमरकान्त ने एक लबी सांस ली और फरियादी आंखों से छत की तरफ देखा। उसके सिर कितनी बड़ी जिम्मेदारी है। उसके ।। . कितने बेगुनाहों के खून से रंगे हुए हैं ! कितने यतीम बच्चे और अबला विधवाएं उसका दामन पकड़कर खींच रही है। उसने क्यों इतनी जल्दबाजी से काम किया? क्या किसानों की फरियाद के लिए यहाँ एक साधन रह गया था? और किसी तरह फरियाद की आवाज नहीं उठाई जा सकती थी? क्या यह इलाज बीमारी से ज्यादा असाध्य नहीं हैं? इन प्रश्नों ने अमरकान्त को पथभ्रष्ट-सा कर दिया। इस मानसिक सक? में काले खां की प्रतिमा उसके सम्मुख आ खड़ी हुई। उसे आभास हुआ कि वह उममे कह रही है--ईश्वर की शरण में जा। वहीं तुझे प्रकाश मिलेगा। अमरकान्त ने वहीं भूमि पर मस्तक रखकर शुद्ध अंत:करण से अपने कर्तव्य की जिज्ञासा की-- भगवन्, मैं अंधकार में पड़ा हुआ हूं। मुझे सीधा मार्ग दिखाइए। और इस शांत, दोन प्रार्थना में उसको ऐसी शा:, मिली, मानो उसके सामने कोई प्रकाश आ गया है और उसकी फैली हुई रोशनी में चिकना रास्ता साफ नजर आ रहा है।