पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४५३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
कर्मभूमि:453
 

कर्मभूमि : 453 करने। यह उसी का उपहार है। मैं तो ऐसे मित्र को गोली मार देता। गिरफ्तार तक हुए, पर मुझे पत्र न लिखा। उसके हिसाब से तो मैं मर गया, मगर बुड्ढा अभी मरने का नाम नहीं लेता, चैन से खाता है और सोता है। किसी के मनाने में नहीं मरा जाता। जरा यह मुठमरदी देखो कि घर में किसी को खबर तक ने दी। मैं दुश्मन था, नैना तो दुश्मन न थी, शान्तिकुमार तो दुश्मन न थे। यहां से कोई जाकर मुकदमे की पैरवी करता, तो ए, बी का दर्जा तो मिल जाता नहीं, मामूली कैदियों की तरह पड़े हुए हैं आप , मेरा क्या बिगड़ता है। | सुखदी कातर कंठ से बोली-आप अब क्यों नहीं चले जाते? समरकान्त ने नाक सिकाइकर कहा- में यों जाऊ, अपने कर्मों का फल भोगे। वह लड़की जो थी, सकीना, उसकी शादी की बातचीत उसी दुष्ट मनाम में हो रही है, जिसने नालाजी को गिरफ्तार किया है। अब आंखें खुली होगी। | सुखदा न सहदयता से भरे हुए म्वर में कहा - आप तो उन्हें कोस रहे हैं, दादा । वास्तव ६ र उनका न था। सरासर मेरा अपराध था। उनका-मा नपस्वी पुरुष मुझ जैसी विलासिनी के साथ कैसे प्रसन्न रह सकता था, बल्कि यों कहा कि दोप न मेरा था, न आपका, न उनका, मारा वि लक्ष्मी ने बोया। आपके घर में उनके लिए स्थान न थी। आप उनसे बराबर खिंचे रहते थे। मैं भी उसी जलवायु में 'पल था। उन्हें न पहचान सकी। वह अट या बुरा जा कुछ करते थे, घर में उसका विरोध होता था। बान-बात पर उनका अपमान किया जाता था। ऐसी दशा में कोई भी सतुष्ट न रह सकता था। मैंने यहां एकांत में इस प्रश्न पर खुब विचार किया है और मुझे अपना दोष स्वीकार करने में पत्र भी मंकोच नहीं हैं। आप एक क्षण भी यहां न टहर। वहां जाकर अधिकारियों से मिले. मलीम से मिले और उनके लिए जो कुछ ही स्पर्क, करं। हमने उनको विशाल तपम्बी आत्मा को भाग के वध से बांधकर रखना चाहा था। अकाश में उड़ने वाले पक्षी को पिजड़े में बद करना चाहते थे। जब पक्षी पिंजड़े को तोड़कर उड़ गया, तो मैंने समझा, मैं अभागिनी हूँ। आज मुझे मालूम हो रहा है, वह मेरा परम सौभाग्य अमरकान्त एक क्षण तक चकित नेत्रों से मुरवृदा की ओर ताकने रहे." ।' अपने कानों पर विश्वास न आ रहा हो। इस शीतल क्षमा ने जेसे उनके मुरझाए हुए पुत्र-स्नेह को हरा करे दिया। बोले--इसकी तो मैने खुब जाच की, बात कुछ नहीं थी। उस पर क्रोध था, उसी क्रोध में जो कुछ मुंह में आ गया, बक गया। यह एब उसमें कभी न था, लेकिन उस वक्त में भी अंधा हो रहा था। फिर मैं कहता हु, मिध्य नहीं, मत्य ही सही, सोलहों आने सत्य सहो, । क्या संसार में जितने ऐसे मनुष्य हैं, उनको गरदन काट दी जाती है? मैं बड़े-बड़े व्यभिचारियों के सामने मस्तक नवाता हूँ। तो फिर अपने ही घर में और उन्हीं के ऊपर जिनसे किमी प्रतिकार की शंका नहीं, धर्म और सदाचार का सारा भार लाद दिया जाय? मनुष्य पर जब प्रेम का बंधन नहीं होता तभी वह व्यभिचार करने लगता है। भिक्षुक द्वार-द्वार ,सीलिए जाता है कि एक द्वार से उसकी क्षुधा- तृप्ति नहीं होती। ॐ ,र इसे दोष भी मान लें, तो ईश्वर ने क्यों निर्दोष संसार नहीं बनाया? जो केहो कि ईश्वर की इच्छा ऐसी नहीं है, तो मैं पूछेगा, जन्य सब ईश्वर के अधीन है, तो वह मन को ऐसा क्यों बना देता है कि उसे किसी टूटी इझोंपड़ी की भाति बहुत-सी थुनियों से संभलना पड़े। यहां तो ऐसा हो है, जैसे किसी रोगी से कहा गाय कि तू अच्छा हो जा। अगर रोगी में समय होती, ती वह बीमार ही क्यों पड़ता?