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कर्मभूमि : 445 चले, उसे भीड़ को हटाने के लिए गोलियां चलानी पड़े? सलीम ने घबराकर कहा-क्या डी० एस० पी० को इन सख्तियों से रोका नहीं जा सकता?

"अमरकान्त आपके दोस्त हैं, डी० एस० पी० के दोस्त नहीं।'

" तो फिर आप डी० एस० पी० को मेरे साथ न भेजें।" "आप अमर को यहां ला सकते हैं?" "दगा करनी पड़ेगी।" "अच्छी बात है, आप जाइए मैं डी० एस० प० को मना किए देता हूं।" "मैं वहां कुछ कहूंगा ही नहीं।" "इसका आपको अख्तियार है।" सलीम अपने डेरे पर लौटा तो ऐसा रंजीदा था. गोया अपना कोई अजीज मर गया हो। आते-ही-आते सकीना, शान्तिकुमार, लाला समरकान्त, नैना, सबों को एक-एक खत लिखकर अपनी मजबूरी और दु:ख प्रकट किया। सकीना को उसने लिखा-मेरे दिल पर इस वक्त जो गुजर रही है, वह मैं तुमसे बयान नहीं कर सकता। शायद अपने जिगर पर खजंर चलाते हुए भी मुझे इससे ज्यादा दर्द न होता। जिसकी मुहब्बत मुझे यहां खीच लाई, उसी को आज मैं इन जालिम हाथों से गिरफ्तार करने जा रहा हूं। सकीना खुदा के लिए मुझे कमीना, बेदर्द और खुदगरज न समझो। खून के आंसू रो रहा हूं। जिसे अपने आंचल से पोंछ दो। मुझ पर अमर के इतने एहसान हैं कि मुझे उनके पसीने की जगह अपना खून बहाना चाहिए था और मैं उनके खून का मजा ले रहा हूं। मेरे गले में शिकारी का खौफ हैं और उसके इशारे पर वह सब कुछ करने पर मजबूर हूं, जो मुझे न करना लाजिम्, था। मुझ पर रहम करो सकीना, मैं बदनसीब है। खानसामे ने आकर कहा- हुजूर, खाना तैयार है। सलीम ने सिर झुकाए हुए कहा-मुझे भूख नहीं है। खानसामा पूछना चाहता था, हुजूर की तबीयत कैसी है? मेज पर कई लिखे खत देखकर डर रहा था कि घर से कोई बुरी खबर तो नहीं आई। सलीम ने सिर उठाया और हसरत-भरे स्वर में बोला-उस दिन वह मेरे एक दोस्त नहीं आए थे, वही देहातियों की-सी सूरत बनाए हुए, वह मेरे बचपन के साथी हैं। हम दोनों एक ही कॉलेज में पढ़े। घर के लखपती आदमी हैं। बाप हैं, बाल-बच्चे हैं। इतने लायक हैं कि मुझे उन्होंने पढ़ाया। चाहते, तो किसी अच्छे ओहदे पर होते। फिर घर में ही किस बात की कमी है, मगर गरीबों का इतना दर्द है कि घर-बार छोड़कर यहीं एक गांव में किसानों की खिदमत कर रहे हैं। उन्हीं को गिरफ्तार करने का मुझे हुक्म हुआ है। खानसामा और समीप आकर जमीन पर बैठ गया-क्या कसूर किया था हुजूर, उन बाबू साहब ने? "कुसूर? कोई कुसूर नहीं, यही कि किसानों को मुसीबत उनसे नहीं देखी जाती। 'हुजूर ने बड़े साहब को समझाया नहीं? "मेरे दिल पर इस वक्त जो कुछ गुजर रही है, वह मैं ही जानता हूं हनीफ, आदमी नहीं फरिश्ता है। यह है सरकारी नौकरी।