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गबन : 43
 

बारह

दूसरे दिन सवेरे ही रमा ने रमेश बाबू के घर का रास्ता लिया। उनके यहां भी जन्माष्टमी में झांकी होती थी। उन्हें स्वयं तो इससे कोई अनुराग न था, पर उनकी स्त्री उत्सव मनाती थी, उसी की यादगार में अब तक यह उत्सव मनाते जाते थे। रमा को देखकर बोले-आओ जी, रात क्यों नहीं आए? मगर यहां गरीबों के घर क्यों आते। सेठजी की झांकी कैसे छोड़ देते। खूब बहार रही होगी।

रमानाथ-आपकी-सी सजावट तो न थी, हां और सालों से अच्छी थी। कई कत्थक और वेश्याएं भी आई थीं। मैं तो चला आया था; मगर सुना रातभर गाना होता रहा।

रमेश-सेठजी ने तो वचन दिया था कि वेश्याएं न आने पावेंगी, फिर यह क्या किया। इन मूर्खा के हाथों हिन्दू धर्म का सर्वनाश हो जायगा। एक तो वेश्याओं का नाम यों भी बुरा, उस पर ठाकुरद्वारे में । छिः-छिः, न जाने इन गधों को कब अक्ल आवेगी।

रमानाथ–वेश्याएं न हों, तो झांकी देखने जाय ही कौन? सभी तो आपकी तरह योगी और तपस्वी नहीं हैं।

रमेश-मेरा वश चले, तो मैं कानून से यह दुराचार बंद कर दें। खैर, फुरसत हो तो आओ। एक-आध बाजी हो जाय।

रमानाथ-और आया किसलिए हूं, मगर आज आपको मेरे साथ जरा सर्राफे तक चलना पड़ेगा। यों कई बड़ी-बड़ी कोठियों से मेरा परिचय है, मगर आपके रहने से कुछ और ही बात होगी।

रमेश–चलने को चला चलूंगा; मगर इस विषय में मैं बिल्कुल कोरा हूँ। न कोई चीज बनवाई न खरीदी। तुम्हें क्या कुछ लेना है?

रमानाथ-लेना-देना क्या है, जरा भाव-ताव देखूंगा।

रमेश–मालूम होता है, घर में फटकार पड़ी है।

रमानाथ- जी, बिल्कुल नहीं। वह तो जेवरों का नाम तक नहीं लेती। मैं कभी पूछता भी हूं, तो मना करती हैं, लेकिन अपना कर्तव्य भी तो कुछ है। जब से गहने चोरी चले गए, एक चीज भी नहीं बनी।

रमेश-मालूम होता है, कमाने का ढंग आ गया। क्यों न हो, कायस्थ के बच्चे हो। कितने रुपये जोड़ लिए?

रमानाथ–रुपये किसके पास हैं, वादे पर लूंगा।

रमेश–इस खब्त में न पड़ो। जब तक रुपये हाथ में न हों, बाजार की नरफ जाओ ही मत। गहनों से तो बुड्ढे नई बीवियों का दिल खुश किया करते हैं, उन बेचारों के पास गहनों के सिवा होता ही क्या है। जवानों के लिए और बहुत से लटके हैं। यों मैं चाहूं, तो दो-हजार का माल दिलवा सकता हूं, मगर भई, कर्ज की लत बुरी है।

रमानाथ-मैं दो-तीन महीनों में सब रुपये चुका दूंगा। अगर मुझे इसका विश्वास न होता, तो मैं जिक्र ही न करता।

रमेश–तो दो-महीने और सब्र क्यों नहीं कर जाते? कर्ज से बड़ा पाप दूसरा नहीं। न इससे बड़ी विपत्ति दूसरी है। जहां एक बार धड़का खुला कि तुम आए दिन सर्राफ की दुकान