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418:प्रेमचंद रचनावली-5
 

नैना शोक से विहल थी, सुखदा उसे मनोबल से दबाए हुए थी। वह एक बार निष्ठुर बनकर चलते-चलते नैना के मोह-बंधन को तोड़ देना चाहती थी, पैने शब्दों से हृदय के चारों ओर खाई खोद देना चाहती थी, मोह और शोक और वियोग-व्यथा के आक्रमणों से उसकी रक्षा करने के लिए; पर नैना की छलछलाती हुई आंखें, वह कांपते हुए होंठ, वह विनय-दीन मुखश्री उसे नि:शस्त्र किए देती थी।

नैना ने जल्दी-जल्दी पान के बीड़े लगाए और भाभी को खिलाने लगी, तो उसके दबे हुए आंसू फव्वारे की तरह उबल पड़े। मुंह ढांपकर रोने लगी। सिसकियां और गहरी होकर कठ तक जा पहुंची।

सुखदा ने उसे गले से लगाकर सजल शब्दों में कहा- क्यों रोती हो बीबी, बीच-बीच में मुलाकात तो होती ही रहेगी। जेल में मुझसे मिलने आना, तो खूब अच्छी-अच्छी चीजें बनाकर लाना। दो-चार महीने में तो मैं फिर आ जाऊगी।

नैना ने जैसे डूबती हुई नाव पर से कहा-मैं ऐसी अभागिन हूं कि आप तो डूबी ही थीं, तुम्हें भी ले डूबी।

ये शब्द फोड़े की तरह उसी समय से उसके हृदय में टीस रहे थे, जब से उसने सुखदा की गिरफ्तारी की खबर सुन्नी थी, और यह टीस उसकी मोह-वेदना को और भी दुर्दात बना रही थी।

सुखदा : आश्चर्य से उसके मुंह की ओर देखकर कहा-यह तुम क्या कह रही हो। बीबी, क्या तुमने पुलिस बुलाई है?

नैना ने ग्लानि से भरे कंठ से कहा-यह पत्थर की हवेली वालों का कुचक्र है { सेठ धनीराम शहर में इसी नाम से प्रसिद्ध थे) I में किसी को गालियां नहीं देती, पर उनका किया उनके आगे आएगा। जिस आदमी के लिए एक मुंह से भी आशीर्वाद न निकलता हो, उसको जीना वृथा है।

मुख़दा ने उदास होकर कहा-उनका इसमें क्या दोष है, बीबी? यह सब हमारे समाज का. हम सबों का दोष है। अच्छा आओ, अब विदा हो जाए। वादा करो, मेरे जाने पर रोगो नहीं।

नैना ने उसके गले से लिपटकर सूजी हुई आंखों से मुस्कराकर कहा-नहीं रोऊंगी, भाभी ।

“अगर मैंन मुना कि तुम रो रही हो, तो मैं अपनी सजा बढ़वा लूंगी।"

"भैया को यह समाचार देना ही होगा।"

"तुम्हारी जैसी इच्छा हो करना। अम्मां को समझाती रहना।"

"उनके पास कोई आदमी भेजा गया या नहीं?"

"उन्हें बुलाने से और देर हो तो होती! घंटों न छोड़ती।"

"सुनकर दौड़ी आएंगी।"

"हां, आएंगी तो, पर रोएगी नहीं। उनका प्रेम आंखों में है। हृदय तक उसकी जई नहीं पहुंचनी।"

दोनों द्वार की ओर चलीं। नैना न को मां की गोद में उतारकर प्यार करना चाहा,