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414:प्रेमचंद रचनावाली-5
 

शान्तिकुमार पर लगातार इतनी चोटें पड़ीं कि हंसी भूल गई। मुंह जरा-सा निकल आया। मुर्दनी ऐसी छा गई जैसे मुंह बंध गया। जबड़े फैलाने से भी न फैलते थे। रेणुका ने उनकी दो- चार बार पहले भी हंसी की थी, पर आज तो उन्हें लाकर छोड़ा। परिहास में औरत अजेय होती है, खासकर जब वह बूढी हो ।

उन्होंने घड़ी देखकर कहा-एक बज रहा है। आज तो हड़ताल अच्छी तरह रही। रेणुका ने फिर चुटकी ली-आप तो घर में लेटे थे, आपको क्या खबर?

शान्तिकुमार ने अपनी कारगुजारी जताई-उन आराम से लेटने वालों में मैं नहीं हूँ। हरेक आंदोलन में ऐसे आदमियों की भी जरूरत होती है, जो गुप्त रूप से उसकी मदद करते रहें। मैंने अपनी नीति बदल दी है और मुझे अनुभव हो रहा है कि इस तरह कुछ कम सेवा नहीं कर सकता। आज नौजवान-सभा के दस-बारह युवकों को तैनात कर आया हूं, नहीं इसकी चौथाई हड़ताल भी न होती।

रेणुका ने बेटी की पीठ पर एक थपकी देकर कहा--जब तू इन्हें क्यों बदनाम कर रही थी? बेचारे ने इतनी जान खपाई, फिर भी बदनाम हुए। मेरी समझ में भी यह नीति आ रही है। सबका आग में कूदना अच्छा नहीं।

शान्तिकुमार कल के कार्यक्रम का निश्चय करके और सुखदा को अपनी ओर से आश्वस्त करके चले गए।

संध्या हो गई थी। बादल खुल गए थे और चांद को सुनहरी जोत पृथ्वी के आंसुओं से भीगे हुए मुख पर मातृ-स्नेह की वर्षा कर रही थी। सुखदा संध्या करने बैठी हुई थी। उस गहरे आत्म-चिंतन में उसके मन की दुर्बलता किसी हठीले बालक की भांति रोती हुई मालूम हुई। मनीराम ने उसका वह अपमान न किया होता, तो वह हड़ताल के लिए क्या इतना जोर लगाती?

उसके अभिमान ने कहा-हां-हां, जरूर लगाती। यह विचार बहुत पहले उसके मन में आया था। धनीराम को हानि होती है, तो हो, इस भय से वह कर्तव्य का त्याग क्यों करे? जब वह अपना सर्वस्व इस उद्योग के लिए होम करने को तुली हुई है, तो दूसरों के हानि लाभ की क्या चिंता हो सकती है?

इस तरह मन को समझाकर उसने मध्या समाप्त की और नीचे उतरी ही थी कि लाला समरकान्त आकर खड़े हो गए। उनके मुख पर विषाद की रेखा झलक रही थी और हॉछ इस तरह फद्धक रहे थे, मानो मन का आवेश बाहर निकलने के लिए विकल हो रहा

सुखदा ने पूछा-आप कुछ घबराए हुए हैं दादाजी, क्या बात है?

समरकान्त की सारी देह कांप उठी। आंसुओं के वेग को बलपूर्वक रोकने की चेष्टा करके बोले–एक पुलिस कर्मचारी अभी दूकान पर ऐसी सूचना दे गया है कि क्या कहे।

यह कहते-कहते उनका कंठ-स्वर जैसे गहरे जल में डुबकियां खाने लगा।

सुखदा ने आर्शोकत होकर पूछा-तो कहिए न, क्या कह गया है? हरिद्वार में तो सब कुशल हैं?

समरकान्त ने उसकी आशंकाओं को दूसरी ओर बहकते देख जल्दी से कहा-नहीं