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406:प्रेमचंद रचनावली-5
 

लिए स्त्री केवल स्वार्थसिद्धि का साधन है, उसे मैं अपना स्वामी नहीं स्वीकार कर सकती।

सुखदा ने विनोद-भाव से पूछा-लेकिन तुमने ही अपने प्रेम का कौन-सी परिचय दिया। क्या विवाह के नाम में इतनी बरकत है कि पतिदेव आते-ही-आते तुम्हारे चरणों पर सिर रख देते ?

नैना गंभीर होकर बोली-हां, मैं तो समझती हैं, विवाह के नाम में ही बरकत है। जो विवाह को धर्म का बंधने नहीं समझता है, इसे केवल वासना की तृप्ति का साधन समझता है, वह पशु है।

सहसा शान्तिकुमार पानी में लथपथ आकर खड़े हो गए।

सुखदा ने पूछा-भीग कहां गए, क्या छतरी न थी?

शान्तिकुमार ने बरसाती उतारकर अलगनी पर रख दी, और बोले-आज बोर्ड की जलसा था। लौटते वक्त कोई सवारी न मिली।

"क्या हुआ बोर्ड में? हमारा प्रस्ताव पेश हुआ?"

"वही हुआ, जिसका भय था।"

"कितने वोटों से हारे।"

"सिर्फ पांच वोटों से। इन्हीं पांचों ने दगा दी। लाला धनीराम ने कोई बात उठा नहीं रखी।।

सुखदा ने हतोत्साह होकर कहा-तो फिर अब?

"अब तो समाचार-पत्रों और व्याख्यानों से आंदोलन करना होगा।"

सुखदा उत्तेजित होकर बोली-जी नहीं, मैं इतनी सहनशील नहीं हूं। लाला धनीराम और उनके सहयोगियों को मैं चैन की नींद न सोने दूंगी। इतने दिनों सबकी खुशामद करके देख लिया। अब अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना पड़ेगा। फिर दस-बीस प्राणों की आहुति देनी पडेगी, तब लोगों की आंखें खुलेंगी। मैं इन लोगों का शहर में रहना मुश्किल कर दूंगी।

शान्तिकुमार लाला धनीराम से जले हुए थे। बोले-यह उन्हीं सेठ धनीराम के हथकडे है।

सुखदा ने द्वेष भाव से कहा-किसी राम के हथकडे हों, मुझे इसकी परवाह नहीं। जब बोर्ड ने एक निश्चय किया, तो उसकी जिम्मेदारी एक आदमी के सिर नहीं, सारे बाई पर है। मैं इन महल-निवासियों को दिखा दूंगी कि जनता के हाथों में भी कुछ बल है। लाला धनीराम जमीन के उन टुकड़ों पर अपने पांव न जमा सकेंगे।

शान्तिकुमार ने कातर भाव से कहा-मेरे खयाल में तो इस वक्त प्रोपेगैंडा करना हो काफी है। अभी मामला तूल हो जाएगा।

ट्रेस्ट बन जाने के बाद से शान्ति कुमार किसी जोखिम के काम में आगे कदम उठाते हुए घबराते थे। अब लुनके ऊपर एक संस्था का भार था और अन्य साधकों की भांति वह भी साधना की ही सिद्धि समझने लगे थे। अब उन्हें बात-बात में बदनामी और अपनी संस्था के नष्ट हो जाने की शंका होती थी।

सुखदा ने उन्हें फटकार बताई-आप क्या बातें कर रहे हैं, डॉक्टर साहब । मैंने इन पढे- लिखे स्वार्थियों को खूब देख लिया। मुझे अब मालूम हो गया कि यह लोग केवल बातों के