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कर्मभूमि: 391
 

कायदे के मुताबिक दो साल के लिए इंग्लैंड जाना चाहिए था; पर सलीम इंग्लैंड न जाना चाहता था। दो-चार महीने के लिए सैर करने तो वह शौक से जा सकता था, पर दो साल तक वहां पड़े रहना उसे मंजूर न था। उसे जगह न मिलनी चाहिए थी, मगर यहां भी उसने कुछ ऐसी दौड़-धूप की, कुछ ऐसे हथकंडे खेले कि वह इस कायदे से मुस्तसना कर दिया गया। जब सुबे का सबसे बड़ा डॉक्टर कह रहा है कि इंग्लैंड की ठंडी हवा में इस युवक का दो साल रहना खतरे से खाली नहीं, तो फिर कौन इतनी बड़ी जिम्मेदारी लेता? हाफिज हलीम लड़के को भेजने को तैयार थे, रुपये खर्च को करने तैयार थे, लेकिन लड़के का स्वास्थ्य बिगड़ गया, तो वह किसका दामन पकड़ेंगे? आखिर यहां भी सलीम की विजय रही। उसे उसी हलके का चार्ज भी मिला, जहां उसका दोस्त अमरकान्ते पहले ही से मौजूद था। उस जिले को उसने खुद पसंद किया।

इधर सलीम के जीवन में एक बड़ा परिवर्तन हो गया। हंसोड़ तो उतना ही था, पर उतना शौकीन, उतना रसिक न था। शायरी से भी अब उतना प्रेम न था। विवाह से उसे जो पुरानी अरुचि थी, वह अब बिल्कुल जाती रही थी। यह परिवर्तन एकाएक से हो गया. हम नहीं जानते, लेकिन इधर वह कई बार सकीना के घर गया था और दोनों में गुप्त रूप से पत्र व्यवहार भी हो रहा था। अमर के उदासीन हो जाने पर भी सकीना उसके अतीत प्रेम के कितनी एकाग्रता से हृदय में पाले हुए थी, इम अनुराग ने सलीम का परास्त कर दिया था। इस ज्योति में अब वह अपने जीवन को आलोकित करने के लिए विकल हो रहा था। अपनी मामा में सकीना के उस अपार प्रेम का वृत्तांत सुन-सुनकर वह बहुधा ने दिया करता। उसका कवि- हृदय जो भ्रमर की भांति नए-नए पुष्पों के रस लिया करता था, अब संयमित अनुराग से परिपूर्ण होकर उसके जीवन में एक विशाल साधना की सृष्टि कर रहा था।

नैना का विवाह भी हो गया। लाला धनीराम नगर के सबसे धनी आदमी थे। उनके ज्येष्ठ पुत्र मनीराम बड़े होनहार नौजवान थे। समरकान्त को तो आशा न थी कि यहां संबंध हो सकेगा, क्योंकि धनीराम मंदिर वाली घटना के दिन से ही इस परिवार को हे" मिझने लगे थे, पर समरकान्त की थैलियों ने अंत में विजय पाई। बड़ी-बड़ी तैयारियां हुई, केन अमरकान्त न आया, और न समरकान्त ने उसे बलाया। धनीराम ने कहला दिया था कि अमरकान्त विवाह में सम्मिलित हुआ तो बारात लौट आएगी। यह बात अमरकान्त के कानों तक पहुंच गई थी। नैना न प्रसन्न थी, न दु:खी थी। वह न कुछ कह सकती थी, न बोल सकती थी। पिता की इच्छा के सामने वह क्या कहती। मनीराम के विषय में तरह-तरह की बातें सुनती थी--शराबी हैं, व्यभिचारी है, मुर्ख है, घमंडी है, लेकिन पिता की इच्छा के सामने सिर झुकाना उसका कर्तव्य था। अगर समरकान्त उसे किसी देवता की बलिवेदी पर चढा देते, तब भी वह मुंह न खुलती। केवल विदाई के समय वह रोई पर उस समय भी उसे यह ध्यान रहा कि पिताजी को दु:ख न हो। समरकान्त की आंखों में धन ही सबर' मूल्यवान वस्तु थी। नैः को जीवन का क्या अनुभव था? ऐसे महत्त्व के विषय में पिता का निश्चय ही उसके लिए मान्य था। उसका चित्त सशंक था: पर उसने जो कुछ अपना कर्तव्य समझ रखा था उसका पालन करते हुए उसके प्राण भी चले जाएं तो उसे दु:ख न होगा।

इधर सुखद और शान्तिकुमार का सहयोग दिन-दिन घनिष्ठ होता जाता था। धन की