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390:प्रेमचंद रचनावली-5
 

"विष भधु के साथ भी अपना असर करता है।"

"यह तो बुरा मानने की बात न थी?"

"मैं बुरा नहीं मानता। अभी दस-पांच वर्ष मेरी परीक्षा होने दीजिए। अभी मैं इतने बड़े विश्वास के योग्य नहीं हुआ।"

रेणुका ने परास्त होकर कहा-अच्छा साहब, मैं अपनी प्रश्न वापस लेती हूं। आप कल मेरे घर आइएगा। मैं मोटर भेज देंगी। ट्रस्ट बनाना पहला काम है। मुझे अब कुछ नहीं पूछना है । आपके ऊपर मुझे पूरा विश्वास है।

डॉक्टर साहब ने धन्यवाद देते हुए कहा-मैं आपके विश्वास को बनाए रखने की चेष्टा करूंगा।

रेणुका बोलीं-मैं चाहती हूं जल्दी ही इस काम को कर डालें। फिर नैना का विवाह आ पड़ेगा, तो महीनों फुर्सत न मिलेगी।

शान्तिकुमार ने जैसे सिहरकर कहा-अच्छी, नैना देवी का विवाह होने वाला है? यह तो बड़ी शुभ सूचना है। मैं कल ही आपसे मिलकर सारी बातें तय कर लूंगा। अमर को भी सूचना दे दें?

सुखदा ने कठोर स्वर में कहा-कोई जरूरत नहीं?

रेणुकी बोलीं-नहीं, आप उनको सूचना दे दीजिएगा। शायद आएं। मुझे तो आशा है जर आएंगे।

डॉक्टर साहब यहां से चले, तो नैना बालक को लिए मोटर से उतर रही थी। शान्तिकुमार ने आहत कंठ से कहा-तुम अब चली जाओगी, नैना? नैना ने सिर झुका लिया; पर उसकी आंखें सजल थीं।

आठ

छ: महीने गुजर गए।

सेवाश्रम का ट्रस्ट बन गया। केवल स्वामी आत्मानन्दजी ने, जो आश्रम के प्रमुख़ कार्यकर्ता और एक-एक पोर समष्टिवादी थे, इस प्रबंध से असंतुष्ट होकर इस्तीफा दे दिया। वह आश्रम में धनिकों को नहीं घुसने देना चाहते थे। उन्होंने बहुत जोर मारा कि ट्रस्ट न बनने पाए। उनकी राय में धन पर आश्रम की आत्मा को बेचना, आश्रम के लिए घातक होगा। धन ही की प्रभता से तो हिन्द-समाज ने नीचों को अपना गलाम बना रखा है, धन ही के कारण तो नीच-ऊंच का भेद आ गया है, उसी धन पर आश्रम की स्वाधीनता क्यों बेची जाए, लेकिन स्वामीजी को कुछ न चली और ट्रस्ट की स्थापना हो गई। उसका शिलान्यास रखा सुखदा ने। जलसा हुआ, दावत हुई, गाना-बजाना हुआ। दूसरे दिन शान्तिकुमार ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।

सलीम की परीक्षा भी समाप्त हो गई। और उसने पेशीनगोई की थी, वह अक्षरश: पृरी हुई। गजट में उसका नाम सबसे नीचे था। शान्तिकुमार के विस्मय की सीमा न रही। अब उसे