पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/३७०

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
370:प्रेमचंद रचनावली-5
 


दूसरे दिन नियत समय पर कथा शुरू हुई; पर श्रोताओं की संख्या बहुत कम हो गई थी। मधुसूदनजी ने बहुत चाहा कि रंग जमा दें; पर लोग जम्हाइयां ले रहे थे और पिछली सफों में तो लोग धड़ल्ले से सो रहे थे। मालूम होता था, मंदिर का आंगन कुछ छोटा हो गया है, दरवाजे कुछ नीचे हो गए हैं, भजन-मंडली के न होने से और भी सन्नाटा है। उधर नौजवान सभा के सामने खुले मैदान में शान्तिकुमार की कथा हो रही थी। ब्रजनाथ, सलीम, आत्मानन्द आदि आने वालों का स्वागत करते थे। थोड़ी देर में दरियां छोटी पड़ गई और थोड़ी देर और गुजरने पर मैदान भी छोटा पड़ गया। अधिकांश लोग नंगे बद्न थे, कुछ लोग चीथड़े पहने हुए उनकी देह से तंबाकू और मैलेपन की दुर्गंध आ रही थी। स्त्रियां आभूषणहीन, मैली-कुचैली धोतियां या लहंगे पहने हुए थीं। रेशम और सुगंध और चमकीले आभूषणों का कहीं नाम न था, पर हृदयों में दया थी, धर्म था, सेवा-भाव था, त्याग था। नए आने वालों को देखते ही लोग जगह घेरने को पांव न फैला लेते थे, यों न ताकते थे, जैसे कोई शत्रु आ गया हो; बल्कि और सिमट जाते थे और खुशी से जगह दे देते थे।

नौ बजे कथा आरंभ हुई। यह देवी-देवताओं और अवतारों की कथा न थी। ब्रह्मऋषियों के तप और तेज का वृत्तांत न था, क्षत्रियों के शौर्य और दान की गाथा न थी। यह उस पुरुष का पावन चरित्र था, जिसके यहां मन और कर्म की शुद्धता ही धर्म का मूल तत्व है। वहीं ऊंचा है, जिसको मन शुद्ध है, वही नीच है, जिसका मन अशुद्ध है-जिसने वर्ण का स्वांग रचकर समाज के एक अंग को मदांध और दूसरे को म्लेच्छ नहीं बनाया। किसी के लिए उन्नत या उद्धार का द्वार नहीं बंद किया-एक के माथे पर बड़प्पन का तिलक और दूसरे के माधे पर नीचता का कलंक नहीं लगाया। इस चरित्र में आत्मोन्नति का एक सजीव संदेश था, जिसे सुनकर दर्शकों को ऐसा प्रतीत होता था, मानो उनकी आत्मा के बंधन खुल गए हैं, संसार पवित्र और सुंदर हो गया है।

नैना को भी धर्म के पाखंड से चिढ़ थी। अमरकान्त उससे इस विषय पर अक्सर बात किया करता था। अछूतों पर यह अत्याचार देखकर उसका खून भी खौल उठा था। समरकान्त का भय न होता, तो उसने ब्रह्मचारीजी को फटकार बताई होती; इसीलिए जब शान्तिकुमार ने तिलकधारियों को आड़े हाथ लिया, तो उसकी आत्मा जैसे मुग्ध होकर उनके चरणों पर लौटने लगी। अमरकान्त से उनका बखान कितनी ही बार सुन चुकी थी। इस समय उनके प्रति उसके मन में ऐसी श्रद्धा उठीं कि जाकर उनसे कहे-तुम धर्म के सच्चे देवता हो, तुम्हें नमस्कार करनी हूं। अपने आसपास के आदमियों को क्रोधित देख-देखकर उसे भय हो रहा था कि कहीं यह लोग उन पर टूट न पड़े। उपक जी में आता था, जाकर डॉक्टर के पास खड़ी हो जाए और उनकी रक्षा करे। जब वह बहुत-से आदमियों के साथ चले गए, तो उसका चित्त शांत हो गया। वह भी सुखदा के साथ घर चली आई।

सुखदा ने रास्ते में कहा—ये दुष्ट न जाने कहां से फट पड़े? उस पर डॉक्टर साहब उल्टे उन्हीं का पक्ष लेकर लड़ने को तैयार हो गए।

नैना ने कहा—भगवान् ने तो किसी को ऊंचा और किसी को नीचा नहीं बनाया?

"भगवान् ने नहीं बनाया, तो किसने बनाया?"

"अन्याय ने।"