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364:प्रेमचंद रचनावली-5
 

आज पांच महीनों से दोनों में अमरकान्त की कभी चर्चा न हुई थी। मानो वह कोई घाव था, जिसको छूते दोनों ही के दिल कांपते थे। सुखदा ने फिर कुछ न पूछा। बच्चे के लिए फ्राक सी रही थी। फिर सीने लगी।

नैना पत्र का जवाब लिखने लगी। इसी वक्त वह जवाब भेज देगी। आज पांच महीने में आपको मेरी सुधि आई है। जाने क्या-क्या लिखना चाहती थी? कई घंटों के बाद वह खत तैयार हुआ, जो हम पहले ही देख चुके हैं। खत लेकर वह भाभी को दिखाने गई। सुखदा ने देखने की जरूरत न समझी।

नैना ने हताश होकर पूछा—तुम्हारी तरफ से भी कुछ लिख दूं?

“नहीं, कुछ नहीं।"

"तुम्हीं अपने हाथ से लिख दो।"

"मुझे कुछ नहीं लिखना है।"

नैना रूआँसी होकर चली गई। ख़त डाक में भेज दिया गया। सुखदा को अमर के नाम से भी चिढ़ है। उसके कमरे में अमर की तस्वीर थी, उसे उसने तोड़कर फेंक दिया था। अब उसके पास अमर की याद दिलाने वाली कोई चीज न थी। यहां तक की बालक से भी उसका जी हट गया था। वह अब अधिकतर नैना के पास रहता था। स्नेह के बदले वह उस पर दया करती थी; पर इस पराजय ने उसे हताश नहीं किया, उसको आत्माभिमान कई गुना बढ़ गया है। आत्मनिर्भर भी अब वह कहीं ज्यादा हो गई हैं। वह अब किसी की उपेक्षा नहीं करना चाहती। स्नेह के दबाव के सिवा और किसी दबाव से उसका मन विद्रोह करने लगता है। उसको विलासिता मानो मान के वन में खो गई है।

लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि सकीना से उसे लेशमात्र भी द्वेष नहीं है। वह उसे भी अपनी ही तरह, बल्कि अपने से अधिक दु:खी समझती है। उसकी कितनी बदनामी हुई और अब बेचारी उस निर्दयी के नाम को रो रही है। वह सारा उन्माद जाता रहा। ऐसे छिछोरा का एतबार ही क्या? वहां कोई दूसरा शिकार फांस लिया होगा। उससे मिलने की उसे बड़ी इच्छा थी; पर सोच-सोचकर रह जाती थी।

एक दिन पठानिन से मालूम हुआ कि सकीना बहुत बीमार है। उस दिन सुखदा ने उसमें मिलने का निश्चय कर लिया। नैना को भी साथ ले लिया। पठानिन ने रास्ते में कहा—मेरे सामने तो उसका मुंह ही बंद हो जाएगा। मुझसे तो तभी से बोल-चाल नहीं है। मैं तुम्हें घर दिखाका कहीं चली जाऊंगी। ऐसी अच्छी शादी हो रही थी, उसने मंजूर ही न किया। मैं भी चुप हूँ, देखें कब तक उसके नाम को बैठी रहती है। मेरे जीतेजी तो लाला घर में कदम रखने न पाएंगे। हां, पीछे को नहीं कह सकती।

सुखदा ने छेड़ा—किसी दिन उनका ख़त आ जाय और सकीना चली जाय तो क्या करोगी?

बुढिया आंखें निकालकर बोली—मजाल है कि इस तरह चली जाय। खून पी जाऊ।

सुखदा ने फिर छेड़ा—जब वह मुसलमान होने को कहते हैं, तब तुम्हें क्या इंकार है।

पठानिन ने कानों पर हाथ रखकर कहा—अरे बेटा! जिसका जिंदगी भर नमक खाया, उसका घर उजाड़कर अपना घर बनाऊं? यह शरीफों का काम नहीं है। मेरी तो समझे ही में