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356:प्रेमचंद रचनावली-5
 

पड़ी-पड़ी कराहूं और तुम बाहर गुलछरें उड़ाओ! दिल बहलाने को कोई शगल चाहिए।

धीरे-धीरे मुझ पर रहस्य खुलने लगा। मन में ऐसी ज्वाला उठी कि अभी इसका मुंह नोच लूं। मैं तुमसे कोई परदा नहीं रखती लाला, मैंने बाबूजी की ओर कभी आंख उठाकर देखा भी न था; पर यह चुड़ैल मुझे कलंक लगा रही थी। बाबूजी का लिहाज न होता, तो मैं उस चुड़ैल का मिजाज ठीक कर देती, जहां सुई न चुभे, वहां फाल चुभाए देती।

आखिर बाबूजी को भी क्रोध आया।

"तुम बिल्कुल झूठ बोलती हो। सरासर झूठ।"

"मैं सरासर झूठ बोलती हूं?"

"हां, सरासर झूठ बोलती हो।"

"खा जाओ अपने बेटे की कसम।"

मुझे चुपचाप वहां से टल जाना चाहिए था, लेकिन अपने इस मन को क्या करूँ, जिसमें अन्याय नहीं देखा जाता। मेरा चेहरा मारे क्रोध के तमतम्मा उठा। मैंने उसके सामने जाकर कही-बहूजी, बस अब जबान बंद करो, नहीं तो अच्छा न होगा। मैं तरह देती जाती हूँ और तुम सिर चढ़ती जाती हो। मैं तुम्हें शरीफ समझकर तुम्हारे साथ ठहर गई थी। अगर जानती कि तुम्हारा स्वभाव इतना नीच है, तो तुम्हारी परछाई से भागती। मैं हरजाई नहीं हूँ, न अनाथ हूं भगवान् को दया से मेरे भी पति हैं, पुत्र है। किस्मत का खेल है कि यहां अकेली पड़ी हूं। मैं तुम्हारे पति को पैर धोने के जोग भी नहीं समझती। मैं उसे बुलाए देती हूँ, तुम भी देख लो, बस आज और कल रह जाओ।

अभी मेरे मुंह से पूरी बात भी न निकलने पाई थी कि मेरे स्वामी मेरे लाल को गोद में लिए आकर आंगन में खड़े हो गए और मुझे देखते ही लपककर मेरी तरफ चले। मैं उन्हें देखते ही ऐसी घबरा गई, मानो कोई सिंह आ गया हो, तुरंत अपनी कोठरी में जाकर भीतर से द्वार बंद कर लिए। छाती धड़-धड़ कर रही थी; पर किवाड़ की दरार में आंख लगाए देख रही थी। स्वामी का चेहरा संवलाया हुआ था, बालों पर धूल जमी हुई थी, पीठ पर कंबल और लुटिया-डोर रखे हाथ में लंबा लट्ठ लिए भौचक्के से खड़े थे।

बाबूजी ने बाहर आकर स्वामी से पूछा-अच्छा, आप ही इनके पति हैं। आप खूब आए। अभी तो वह आप ही की चर्चा कर रही थीं। आइए, कपड़े उतारिए। मगर बहन भीतर क्यों भाग गईं। यहां परदेश में कौन परदा?

मेरे स्वामी को तो तुमने देखा ही है। उनके सामने बाबूजी बिल्कुल ऐसे लगते थे, जैसे सांड के सामने नाटा बैल।

स्वामी ने बाबूजी को जवाब न दिया, मेरे द्वार पर आकर बोले-मुन्नी, यह क्या अंधेर करती हो? मैं तीन दिन से तुम्हें खोज रहा हूँ। आज मिली भी, तो भीतर जा बैठी। ईश्वर के लिए किवाड़ खोल दो और मेरी दु:ख कथा सुन लो, फिर तुम्हारी जो इच्छा हो करना।

मेरी आंखों से आंसू बह रहे थे। जी चाहता था, किवाड़ खोलकर बच्चे को गोद में ले लूँ।

पर न जाने मन के किसी कोने में कोई बैठा हुआ कह रहा था-खबरदार, जो बच्चे को गोद में लिया! जैसे कोई प्यास से तड़पता हुआ आदमी पानी का बरतन देखकर टूटे पर