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कर्मभूमि:347
 


आदमी कहां चले गए? एक भी नहीं आया।"

"गांव में है ही कौन?"

"कहां चले गए सब?"

"वाह! तुम्हें खबर ही नहीं? पहर रात सिरोमनपुर के ठाकुर को गाय मर गई, सब लोग वहीं गए हैं। आज घर-घर सिकार बनेगा।"

"अमर ने घृणा-सूचक भाव से कहा-मरी गाय?"

"हमारे यहां भी तो खाते हैं, यह लोग।"

क्या जाने? मैंने कभी नहीं देखा। तुम तो"

मुन्नी ने घृणा से मुंह बनाकर कहा-मैं तो उधर ताकत भी नहीं।

"समझाती नहीं इन लोगों को?"

"उंह। समझाने से माने जाते हैं, और मेरे समझाने से।"

अमरकान्त की वंशगत वैष्णव वृत्ति इस घृणित, पिशाच कर्म से जैसे मतलाने लगी। उसे सचमुच मतली हो आई। उसने छूत-छात और भेदभाव को मेन में निकाल डाला था, पर अखाद्य से वही पुरानी घृणा बनी हुई थी। और वह दस-ग्यारह महीने से इन्हीं मुरदाखोरों के घर भोजन कर रहा है।

"आज मैं खाना नहीं खाऊंगा, मुन्नी।"

"मैं तुम्हारा भोजन अलग पका देंगी।"

"नहीं मुन्नी। जिस घर में वह चीज पकेगी, उस घर में मुझसे न खाया जायगा।"

सहसा शोर सुनकर अमर ने आंखें उठाई. तो देना कि पंद्रह-बीस आदमी बांस की बल्लियों पर उस मृतक गाय को लादे चले आ रहे है। सामने कई लड़के उछलते-कूदते तालियां बजाते चले आते थे।

कितना बीभत्स दृश्य था। अमर वहां खड़ा न रह सका। गंगा-तट की ओर भागा। मुन्नी ने कहा-तो भाग जाने से क्या होगा? अगर बुरा लगता है तो जाकर समझाओ।

"मेरी बात कौन सुनेगा, मुन्नी?"

"तुम्हारी बात न सुनेंगे, तो और किसकी बात सुनेगे, लाला?"

"और जो किसी ने न माना?"

"और जो मान गए। आओ, कुछ-कुछ बद लो।"

"अच्छा क्या बदती हो?"

"मान जायें तो मुझे एक अच्छी-सी साड़ी ला देना।"

"और न माने, तो तुम मुझे क्या दोगी?"

"एक कौड़ीं।"

इतनी देर में वह लोग और समीप आ गए। चौधरी सेनापति की भति आगे पागे लपके चले आते थे।

मुन्नी ने आगे बढ़कर कहा-ला तो रहे हो, लेकिन लाला भागे जा रहे हैं।

गूदड़ ने कौतूहल से पूछा-क्यों। क्या हुआ है?

"यही गाय की बात है। कहते हैं, मैं तुम लोगों के हाथ का पानी न पिऊंगा।"