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कर्मभूमि:343
 


शायद कभी मरूगी भी नहीं। कुछ देर तो गुस्से के मारे तुम्हारा खत न खोला। पर कब तक? खत खोला, पढ़ा, रोई, फिर पढ़ा, फिर रोई। रोने में इतना मजा है कि जी नहीं भरता। अब इंतजार की तकलीफ नहीं झेली जाती। खुदा आपको सलामत रखे।

"देखा, यह खत कितना दर्दनाक है। मेरी आंखों में बहुत कम आंसू आते हैं, लेकिन यह खुत देखकर जब्त न कर सका। कितने खुशनसीब हो तुम।"

अमर ने सिर उठाया तो उसकी आंखों में नशा था, वह नशा जिसमें आलस्य नहीं, स्फूर्ति है, लालिमा नहीं, दीप्ति है; उन्माद नहीं, विस्मृति नहीं, जागृति है। उसके मनोजगत में ऐसा भूकंप कभी न आया था। उसकी आत्मा कभी इतनी उदार, इतनी विशाल, इतनी प्रफुल्ले न थी। आंखों के सामने दो मूर्तियां खड़ी हो गईं, एक विलास में डूबी हुई, रत्नों से अलंकृत, गर्व में चूर; दूसरी सरल माधुर्य से भूषित, लज्जा और विनय से सिर झुकाए हुए। उसका प्यासा हृदय उस खुशबूदार मीठे पारबत से हटकर इस शीतल जल की ओर लपका। उसने पत्र के उस अंश को फिर पढ़ा, फिर आवेश में जाकर गंगा-तट पर टहलने लगा। सकना से कैसे मिले? यह ग्रामीण जीवन उसे पसंद आएगा? कितनी सुकुमार है कितनी कोमल! वह और कठोर जीवन? कैसे आकर उसकी दिलजोई करे। उसकी वह सरत याद आई, जब उसने कहा था-बाबूजी, मैं भी चलती हूं। ओह! कितना अनुराग था। किसी मजूर को गढ़ा खोदते-खोदते और कोई रत्न मिल जाए और वह अपने अज्ञान में उसे कांच को टुकड़ा ही समझ रहा हो।

"इतना अरमान है कि मरने के पहले आपको देख्न लेती"-यह वाक्य जैसे उसके हृदय में चिमट गया था। उसका मन जैसे गंगा की लहरों पर तैरता हुआ सकीना को खोज रहा था। लहरों की ओर तन्मयता से ताकते-ताकते उसे मालूम हुआ मैं बहा जा रहा हूं। वह चौंककर घर की तरफ चला। दोनों आंखें तर, नाक पर लाली और गालों पर आर्द्रता।

पांच

गांव में एक आदमी सगाई लाया है। उस उत्सव में नाच, गाना, भोज हो रहा है। उसके द्वार पर नगड़ियां बज रही है, गांव भर के स्त्री, पुरुष, बालक जमा हैं और नाच शुरू हो गया है। अमरकान्त की पाठशाला आज बंद है। लोग उसे भी खींच लाए हैं।

पयाग ने कहा--चलो भैया, तुम भी कुछ करतब दिखाओ। सुनी है, तुम्हारे देस में लोग खूब नाचते हैं।

अमर ने जैसे क्षमा-सी मांगी--भाई, मुझे तो नाचना नहीं आता।

उसकी इच्छा हो रही है कि नाचना आता, तो इस समय सबको चकित कर देता।

युवकों और युवतियों के जोड़ बंधे हुए हैं। हरेक ज; दस-पंद्रह मिनट तक थिरककर चला जाता है। नाचने में कितना उन्माद, कितना आनंद है, अमर ने न समझा था।

एक युवती पूंघट बढ़ाए हुए रंगभूमि में आती है इधर से पयाग निकलता है। दोनों नाचने लगते हैं। युवती के अंगों में इतनी लचक है, उसके अंग-विलास में भावों की ऐसी व्यंजना