पड़ी। तुम्हारा ही तो मुझे भरोसा था और तुम्हीं ने मुझे ऐसा जवाब दिया; पर अल्लाह का फजल है, बहूजी ने मुझसे वादा किया-जितने रुपये चाहना ले जाना। वहीं देर हो गई। तुम मुझसे किसी बात पर नाराज तो नहीं हो, बेटा?
अमर ने उसकी दिलजोई को नहीं अम्मां, आपसे भला क्या नाराज होता। उस वक्त दादा से एक बात परे झर्क-झक हो गई थी; उसी का खुमार था। मैं बाद को खुद शर्मिंदा हुआ और तुमसे मुआफी मांगने दौड़ा। सारी खता मुआफ करती हो?
बुढ़िया रोकर बोली--बेटा, तुम्हारे टुकड़ों पर तो जिंदगी कटी, तुमसे नाराज होकर खुदा को क्या मुंह दिखाऊंगी? इस खाल से तुम्हारे पांव की ज़तियों बनें, तो भी दरेग न करू।
"बस, मुझे तस्कीन हो गई अम्मां। इसीलिए आया था।"
अमर द्वार पर पहुंचा, तो सकीना ने द्वार बंद करते हुए कहा-कल जरूर आना।
अमर पर एक गैलन का नशा चढ़ गयी-जरूर आऊंगा।
"मैं तुम्हारी राह देखती रहूंगी।"
"कोई चीज तुम्हारी नजर करू, तो नाराज तो न होगी?"
"दिल से बढ़कर भी कोई नजर हो सकती है?"
"नजर के साथ कुछ शीरीनी होनी जरूरी है।"
"तुम जो कुछ दो, वह सिर-आंखों पर।"
अमर इस तरह अकड़ता हुआ जा रहा था, गोया दुनिया की बादशाही पा गया है। सकीना ने द्वार बंद करके दादी से कहा -तुम नाहक दौड़-धूप कर रही हो मां। मैं शादी न करूंगी।
"तो क्या यों ही बैठी रहेगी?"
"हां, जब मेरी मर्जी होगी, तब कर लूंगी।"
"तो क्या मैं हमेशा बैठी रहूंगी?"
"हां, जब तक मेरी शादी न हो जाएगी, आप बैठी रहेंगी।"
"हंसी मत कर। मैं सब इंतजाम कर चुकी हूं।"
"नहीं अम्मां, मैं शादी ने करूंगी और मुझे दिक करोगी तो जहर खा लूंगी। शादी के खयाल से मेरी रूह फना हो जाती है।"
"तुम्हें क्या हो गया सकीना?"
"मैं शादी नहीं करना चाहती, बस। जब तक कोई ऐसा आदमी न हो, जिसके साथ मुझे आराम से जिंदगी बसर होने का इत्मीनान हो, मैं यह दर्द सर नहीं लेना चाहती। तुम मुझे ऐसे घर में डालने जा रही हो, जहां मेरी जिंदगी तल्ख हो जाएगी। शादी की मंशा यह नहीं है कि आदमी रो-रोकर दिन काटे।"
पठानिन ने अंगीठी के सामने बैठकर सिर पर हाथ रख लिया और सोचने लगीलड़की कितनी बेशर्म है!
सकीना बाजरे की रोटियां मसूर की दाल के साथ खाकर, टूटी खाट पर लेटी और पुराने फटे हुए लिहाफ में सर्दी के मारे पांव सिकोड़ लिए, पर उसका हृदये आनंद से परिपूर्ण था। आज उसे जो विभूति मिली थी, उसके सामने संसार की संपदा तुच्छ थी, नगण्य थी।