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242:प्रेमचंद‌ रचनावली-5
 

"और किसलिए चलाया जाता है।"

"यह आत्म-शुद्धि का एक साधन है।"

समरकान्त के घाव पर जैसे नमक पड़ गया। बोले-यह आज नई बात मालूम हुई। तब तो तुम्हारे ऋषि होने में कोई संदेह नहीं रहा, भगर साधना के साथ कुछ घर-गृहस्थी का काम भी देखना होता है। दिन-भर स्कूल में रहो, वहां स लौटो तो चरखे पर बैठो, रात को तुम्हारी स्त्री-पाठशाला खुले, संध्या समय जलसे हों, तो घर का धंधा कौन करे? मैं बैल नहीं हूं। तुम्ही लोगों के लिए इस जंजाल में फंसा हुआ हूं। अपने ऊपर लाद न ले जाऊंगा। तुम्हें कुछ तो मेरी मदद करनी चाहिए। बड़े नीतिवान बनते हो, क्या यह नीति है कि बूढ़ा बाप मरा करे और जवान बेटा उसकी बात भी न पूछे?

अमरकान्त ने उदंडता से कहा-मैं तो आपसे बार-बार कह चुका, आप मेरे लिए कुछ न करें। मुझे धन की जरूरत नहीं। आपकी भी वृद्धावस्था है। शांतचित्त होकर भगवत् - भजन कीजिए।

समरकान्त तीखे शब्दों में बोले-धन न रहेगा लाला, तो भीख मांगोगे। यों चैन से बैठकर चरखा न चलाओगे। यह तो न होगा, मेरी कुछ मदद करो, पुरुषार्थहीन मनुष्यों की तरह कहने लगे, मुझे धन की जरूरत नहीं। कौन है, जिसे धन की जरूरत नहीं? साधु- संन्यासी तक तो पैसों पर प्राण देते हैं। धन बड़े पुरुषार्थ से मिलता है। जिसमें पुरुषार्थ नही, वह क्या धन कमाएगा? बड़े-बड़े तो धन की उपेक्षा कर ही नहीं सकते, तुम किस खेत की मूली हो ।

अमर ने उसी वितडा भाव से कहा-संसार धन के लिए प्राण दे, मुझे धन की इच्छा नहीं। एक मजूर भी धर्म और आत्मा की रक्षा करते हुए जीवन का निर्वाह कर सकता है। कम-से-कम मैं अपने जीवन में इसकी परीक्षा करना चाहता हूं।

लालाजी को वाद-विवाद का अवकाश न था। हारकर बोले-अच्छा बाबा, कर लो खूब जी भरकर परीक्षा, लेकिन रोज-राज रुपये के लिए मेरा सिर न खाया करो। मैं अपनी गाढ़ी कमाई तुम्हारे व्यसन के लिए नहीं लुटाना चाहता।

लालाजी चले गए। नैना कहीं एकांत में जाकर खूब रोना चाहती थी, पर हिल न सकती थी, और अमरकान्त ऐसा विरक्त हो रहा था, मानो जीवन उसे भार हो रहा है।

उसी वक्त महरी ने ऊपर से आकर कहा - भैया, तुम्हें बहूजी बुला रही है।

अमरकान्त ने बिगड़कर कहा जा कह दे, फुर्सत नहीं है। चली वहां से- बहूजी बुला रही हैं।

लेकिन जब महरी लोटने लगी, तो उसने अपने तीखेपन पर लज्जित होकर कहा मैंने तुम्हें कुछ नहीं कहा है सिल्लो | कह दो, अभी आता हूं। तुम्हारी रानीजी क्या कर रही है?

सिल्ला का पूरा नाम था कौशल्या। सीतला में पति, पुत्र और एक आंख जाती रही थी, तब में विक्षिप्त-सी हो गई थी। रोने की बात पर हंसती, हंसने की बात पर रोती। घर के और सभी प्राणी, यहां तक की नौकर-चाकर तक उसे डाटते रहते थे। केवल अमरकान्त उसे मनुष्य समझता था। कुछ स्वस्थ होकर बोली-बैठो कुछ लिख रही हैं। लालाजी चीखते थे इसी से तुम्हें बुला भेजा।