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218 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


देवत्व से मिल जाता है। जालपा को अब कोई शंका नहीं है, इस प्रेम को पाकर वह जन्म-जन्मांतरों तक सौभाग्यवती बनी रहेगी।इस प्रेम ने उसे वियोग, परिस्थिति और मृत्यु के भय से मुक्त कर दिया—उसे अभय प्रदान कर दिया। इस प्रेम के सामने अब सारा संसार और उसका अखंड वैभव तुच्छ है।

इतने में जोहरा आ गई। जालपा को पटरी पर खड़े देखकर बोली-वहां कैसे खड़ी हो, बहन। आज तो मैं न आ सकी। चलो, आज मुझे तुमसे बहुत-सी बातें करनी हैं।

दोनों ऊपर चली गई।

उनचास

दारोगा को भला कहां चैन? रमा के जाने के बाद एक घंटे तक उसका इंतजार करते रहे, फिर घोड़े पर सवार हुए और देवीदीन के घर जा पहुंचे। वहां मालूम हुआ कि रमा को यहां से गए आधा घंटे से ऊपर हो गया। फिर थाने लौटे। वहां रमा का अब तक पता न था। समझे देवीदीन ने धोखा दिया। कहीं उन्हें छिपा रक्खा होगा। सरपट साइकिल दौड़ाते हुए फिर देवीदीन के घर पहुंचे और धमकाना शुरू किया। देवीदीन ने कहा—विश्वास न हो, घर की खाना-तलाशी ले लीजिए और क्या कीजिएगा। कोई बहुत बड़ा घर भी तो नहीं है। एक कोठरी नीचे है,एक ऊपर।

दारोगा ने साइकिल से उतरकर कहा-तुम बतलाते क्यों नहीं, वह कहां गए?

देवीदीन–मुझे कुछ मालूम हो तब तो बताऊं साहब । यहां आए, अपनी घरवाली से तकरार की और चले गए।

दारोगा—वह कब इलाहाबाद जा रही हैं?

देवीदीन-इलाहाबाद जाने की तो बाबूजी ने कोई बातचीत नहीं की। जब तक हाईकोर्ट का फैसला न हो जायगा, वह यहां से न जाएंगी।

दारोगा-मुझे तुम्हारी बातों का यकीन नहीं आता।

यह कहते हुए दारोगा नीचे की कोठरी में घुस गए और हर एक चीज को गौर से देखा। फिर ऊपर चढ़ गए। वहां तीन औरतों को देखकर चौंके। जोहरा को शरारत सूझी, तो उसने लंबा-सा घूंघट निकाल लिया और अपने हाथ साड़ी में छिपा लिए। दारोगाजी को शक हुआ। शायद हजरत यह भेस बदले तो नहीं बैठे हैं।

देवीदीन से पूछा-यह तीसरी औरत कौन है?

देवीदीन ने कहा-मैं नहीं जानता। कभी-कभी बहू से मिलने आ जाती है।

दारोगा-मुझी से उड़ते हो बचा साड़ी पहनाकर मुलजिम को छिपाना चाहते हो ! इनमें कौन जालपा देवी हैं। उनसे कह दो, नीचे चली जायं। दूसरी औरत को यहीं रहने दो।

जालपा हट गई, तो दारोगाजी ने जोहरा के पास जाकर कहा-क्यों हजरत, मुझसे यह चालें ! क्या कहकर वहां से आए थे और यहां आकर मजे में आ गए। सारा गुस्सा हवा हो गया। अब यह भेस उतारिए और मेरे साथ चलिए, देर हो रही है।