पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/२१५

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जान और कई खानदानों की तबाही है, दूसरी तरफ अपनी तबाही है। मैं चाहूं, तो आज इन सबों की जान बचा सकती हूं। मैं अदालत को ऐसा सबूत दे सकती हूं कि फिर मुखबिर की शहादत की कोई हकीकत ही न रह जायगी, पर मुखबिर को सजा से नहीं बचा सकती। बहन, इस दुविधे में मैं पड़ी नरक का कष्ट झेल रही हूं। न यही होता है कि इन लोगों को मरने दें, और न यही हो सकता है कि रमा को आग में झोंक दें। यह कहकर वह रो पड़ीं और बोलीं-बहन, मैं खुद मर जाऊंगी, पर उनका अनिष्ट मुझसे न होगा। न्याय पर उन्हें भेंट नहीं कर सकती। अभी देखती हूं, क्या फैसला होता है। नहीं कह सकती, उस वक्त मैं क्या कर बैठूं। शायद वहीं हाईकोर्ट में सारा किस्सा कह सुनाऊं, शायद उसी दिन जहर खाकर सो रहूं।

इतने में देवीदीन का घर आ गया। हम दोनों विदा हुईं। जालपा ने मुझसे बहुत इसरार किया कि कल इसी वक्त फिर आना। दिन-भर तो उन्हें बात करने की फुरसत नहीं रहती। बस वहीं शाम को मौका मिलता था। वह इतने रुपये जमा कर देना चाहती हैं कि कम-से-कम दिनेश के घर वालों को कोई तकलीफ न हो। दो सौ रुपये से ज्यादा जमा कर चुकी हैं। मैंने भी पांच रुपये दिए। मैंने दो-एक बार जिक्र किया कि आप इन झगड़ों में न पड़िए, अपने घर चली जाइए, लेकिन मैं साफ-साफ कहती हु, मैंने कभी जोर देकर यह बात न कही। जब-जब मैंने इसका इशारा किया उन्होंने ऐसा मुंह बनाया, गोया वह यह बात सुनना भी नहीं चाहतीं। मेरे मुंह से पूरी बात कभी न निकलने पाई। एक बात है, कहो तो कहूं?

रमा ने मानो ऊपरी मन से कहा-क्या बात है?

जोहरा–डिप्टी साहब से कह दूं, वह जालपा को इलाहाबाद पहुंचा दें। उन्हें कोई तकलीफ न होगी। बस दो औरतें उन्हें स्टेशन तक बातों में लगा ले जाएंगी। वहां गाड़ी तैयार मिलेंगी, वह उसमें बैठा दी जाएंगी, या कोई और तदबीर सोचो।

रमा ने जोहरा की आंखों से आंख मिलाकर कहा-क्या यह मुनासिब होगा?

जोहरा ने शरमाकर कहा-मुनासिब तो न होगा।

रमा ने चटपट जूते पहन लिए और जोहरा से पूछा-देवीदीन के ही घर पर रहती है न?

जोहरा उठ खड़ी हुई और उसके सामने आकर बोली-तो क्या इस वक्त जाओगे?

रमानाथ–हां जोहरा, इसी वक्त चला जाऊंगा। बस, उनसे दो बातें करके उस तरफ चला जाऊंगा जहां मुझे अब से बहुत पहले चला जाना चाहिए था।

जोहरा-मगर कुछ सोच तो लो, नतीजा क्या होगा।

रमानाथ-सब सोच चुका, ज्यादा से ज्यादा तीन-चार साल की कैद दरोगबयानी के जुर्म में। बस अब रुखसते। भूल मत जाना जोहरा, शायद फिर कभी मुलाकात हो।

रमा बरामदे से उतरकर सहन में आया और एक क्षण में फाटक के बाहर था। दरबान ने कहा-हुजूर ने दारोगाजी को इत्तला कर दी है?

रमानाथ-इसकी कोई जरूरत नहीं।

चौकीदार-मैं जरा उनसे पूछ लूँ। मेरी रोजी क्यों ले रहे हैं, हुजूर?

रमा ने कोई जवाब न दिया। तेजी से सड़क पर चल खड़ा हुआ। जोहरा निस्पंद खड़ी उसे हसरत-भरी आंखों से देख रही थी। रमा के प्रति ऐसा प्यार, ऐसा विकल करने वाला प्यार