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गबन:179
 

अब तक सभी बातों में उसे परास्त होना पड़ा था। जो बात उसे असूझ मालूम हुई, उसे जालपा ने चुटकियों में पूरा कर दिखाया। शतरंज वाली बात को वह खूब नमक-मिर्च लगाकर बयान कर सकता था; लेकिन वहां भी जालपा ही ने नीचा दिखाया। फिर उसकी कीर्ति-लालसा को इसके सिवा और क्या उपाय था कि अपने कष्टों की राई को पर्वत बनाकर दिखाए।

जालपा ने सिसककर कहा-तुमने यह सारी आफतें झेली, पर हमें एक पत्र तक न लिखा। क्यों लिखते, हमसे नाता ही क्या था ! मुंह देखे की प्रीति थी ! आंख ओट पहाड़ ओट।

रमा ने हसरत से कहा-यह बात नहीं थी जालपा, दिल पर जो कुछ गुजरती थी दिल ही जानता है, लेकिन लिखने का मुंह भी तो हो। जब मुंह छिपाकर घर से भाग्म,तो अपनी विपत्ति-कथा क्या लिखने बैठता ! मैंने तो सोच लिया था, जब तक खूब रुपये न कमा लेगा, एक शब्द भी न लिखेगा।

जालपा ने आंसू-भरी आंखों में व्यंग्य भरकी कहा–ठीक ही था, रुपये आदमी से ज्यादा प्यारे होते ही हैं ! हम तो रुपये के यार हैं, तुम चाहे चोरी करो, डाका मारो, जाली नोट बनाओ, झूठी गवाही दो या भीख मांगो,किसी उपाय से रुपये लाओ। तुमने हमारे स्वभाव को कितना ठीक समझा है, के वाह ! गोसाईं जी भी तो कह गए हैं-स्वारथ लाइ करहिं सब प्रीतिः ।

रमा ने झेंपते हुए कहा-नहीं-नहीं प्रिये, यह बात न थी। मैं यही सोचता था कि इन फटे-हालों जाऊंगा कैसे। सच कहता हूं, मुझे सबसे ज्यादा डर तुम्हीं से लगता था। सोचता था, तुम मुझे कितना कपटी, झूठा, कायर समझ रही होगी। शायद मेरे मन में यह पाया था कि रुपये की थैली देखकर तुम्हारी हदय कुछ तो नर्म होगा।

जालपा ने व्यथित कंठ से कहा- मैं शायद उस थैली को हाथ से छूती भी नहीं। आज मालूम हो गया, तुम मुझे कितनी नीच, कितनी स्वार्थिनी, कितनी लोभिन समझते हो! इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं, सरासर मेरा दोष है। अगर मैं भली होती, तो अन यह दिन ही क्यों आता। जो पुरुष तीस-चालीस रुपये का नौकर हो, उसकी स्त्री अगर दो-चार रुपये रोज खर्च करे, हजार-दो हजार के गहने पहनने की नीयत रक्खे, तो वह अपनी और उसकी तबाही का सामान कर रही है। अगर तुमने मुझे इतना धनलोलुप समझा, तो कोई अन्याय नहीं किया। मगर एक बार जिस आग में जल चुकी, उसमें फिर न कूदेंगी। इन महीनों में मैंने उन पापों का कुछ प्रायश्चित किया है और शेष जीवन के अंत समय तक करूंगी। यह मैं नहीं कहती कि भोग-विलास से मेरा जी भर गया, या गहने-कपड़े से मैं ऊब गई, या सैर-तमाशे से मुझे घृणा हो गई। यह सब अभिलाषाएं ज्यों की त्यों है। अगर तुम अपने पुरुषार्थ से, अपने परिश्रम से, अपने सदुद्योग से उन्हें पूरा कर सको तो क्या कहना; लेकिन नीयत खोटी करके, आत्मा को कलुषित करके एक लाख भी लाओ, तो मैं उसे ठुकरा दूंगी। जिस · क्त मुझे मालूम हुआ कि तुम पुलिस के गवाह बन गए हो, मुझे इतना दुःख हुआ कि मैं उसी वक्त दादा को साथ लेकर तुम्हारे बंगले तक गई; मगर उसी दिन तुम बाहर चले गए थे और आज लौटे हो। मैं इतने आदमियों का खून अपनी गर्दन पर नहीं लेना चाहती। तुम अदालत में साफ-साफ कह दो कि मैंने पुलिस के चकमे में आकर गवाही दी थी. मेरा इस मुआमले से कोई संबंध नहीं है।

रमा ने चिंतित होकर कहा--जब से तुम्हारा खत मिला, तभी से मैं इस प्रश्न पर विचार