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पैंतीस

रुदन में कितना उल्लास,कितनी शांति,कितना बल है। जो कभी एकांत में बैठकर,किसी की स्मृति में,किसी के वियोग में,सिसक-सिसक और बिलख-बिलख नहीं रोया,वह जीवन के ऐसे सुख से वंचित है, जिस पर सैकड़ों हँसिया न्योछावर हैं। उस मीठी वेदना का आनंद उन्हीं से पूछो,जिन्होंने यह सौभाग्य प्राप्त किया है। हंसी के बाद मन खिन्न हो जाता है,आत्मा क्षुब्ध हो जाती है, मानो हम थक गए हों, पराभूत हो गए हों। रुदन के पश्चात् एक नवीन स्फूर्ति,एक नवीन जीवन,एक नवीन उत्साह का अनुभव होता है। जालपा के पास 'प्रजा-मित्र' कार्यालय का पत्र पहुंचा, तो उसे पढ़कर वह रो पड़ी। पत्र एक हाथ में लिए,दूसरे हाथ से चौखट पकड़े, वह खूब रोई। क्या सोचकर रोई,वह कौन कह सकता है। कदाचित् अपने उपाय की इस आशातीत सफलता ने उसकी आत्मा को विह्वल कर दिया,आनंद की उस गहराई पर पहुंचा दिया जहां पानी है,या उस ऊंचाई पर जहां उष्णता हिम बन जाती है। आज छः महीने के बाद यह सुख-संवाद मिला। इतने दिनों वह छलमयी आशा और कठोर दुराशा का खिलौना बनी रही। आह ! कितनी बार उसके मन में तरंग उठी कि इस जीवन को क्यों न अंत कर दें। कहीं मैंने सचमुच प्राण त्याग दिए होते तो उनके दर्शन भी न पाती। पर उनका हिया कितना कठोर है। छः महीने से वहां बैठे हैं, एक पत्र भी न लिखा,खबर तक नहीं ली। आखिर यही न समझ लिया होगा कि बहुत होगा रो-रोकर मर जायगी। उन्होंने मेरी परवाह ही कब की । दस-बीस रुपये तो आदमी यार-दोस्तों पर भी खर्च कर देता है। वह प्रेम नहीं है। प्रेम हृदय की वस्तु है, रुपये की नहीं। जब तक रमा का कुछ पता न था, जालपा सारा इल्जाम अपने सिर रखती थी, पर आज उनका पता पाते ही उसका मन अकस्मात् कठोर हो गया। तरह-तरह के शिकवे पैदा होने लगे। वहां क्या समझकर बैठे हैं? इसीलिए तो कि वह स्वाधीन हैं, आजाद हैं, किसी का दिया नहीं खाते। इसी तरह मैं कहीं बिना कहे-सुने चली जाती, तो वह मेरे साथ किस तरह पेश आते? शायद तलवार लेकर गर्दन पर सवार हो जाते या जिंदगी भर मुंह न देखते। वहीं खड़े-खड़े जालपा ने मन-ही-मन शिकायतों का दफ्तर खोल दिया।

सहसा रमेश बाबू ने द्वार पर पुकारा-गोपी, गोपी, जरा इधर आना। मुंशीजी ने अपने कमरे में पड़े-पड़े कराहकर कहा-कौन है भाई, कमरे में आ जाओ। अरे ! आप हैं रमेश बाबू ! बाबूजी, मैं तो मरकर जिया हूं। बस यही समझिए कि नई जिंदगी हुई। कोई आशा न थी। कोई आगे न कोई पीछे; दोनों लौंडे आवारा है, मैं मरू या जीऊ, उनसे मतलब नहीं। उनकी मां को मेरी सूरत देखते डर लगता है। बस बेचारी बहू ने मेरी जान बचाई। वह न होती तो अब तक चल बसा होता।

रमेश बाबू ने कृत्रिम संवेदना दिखाते हुए कहा-आप इतने बीमार हो गए और मुझे खबर तक न हुई। मेरे यहां रहते आपको इतना कष्ट हुआ ! बहू ने भी मुझे एक पुर्जा न लिख दिया। छुट्टी लेनी पड़ी होगी?

मुंशी–छुट्टी के लिए दरख्वास्त तो भेज दी थी; मगर साहब मैंने डाक्टरी सर्टिफिकेट