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160 : प्रेमचंद रचनावली-5
 

दारोगाजी ने रमा को जवाब देने का अवसर न देकर कहा-वही डकैतियों वाला मुआमला है जिसमें कई गरीब आदमियों की जान गई थी। इन डाकुओं ने सूबे भर में हंगामा मचा रखा था। उनके डर के मारे कोई आदमी गवाही देने पर राजी नहीं होता।

देवीदीन ने उपेक्षा के भाव से कहा-अच्छा तो यह मुखबिर बन गए? यह बात है। इसमें तो जो पुलिस सिखाएगी वही तुम्हें कहना पड़ेगा, भैया । मैं छोटी समझ का आदमी हूं, इन बातों का मर्म क्या जानू पर मुझसे मुखबिर बनने को कहा जाता, तो मैं न बनता, चाहे कोई लाख रुपया देता! बाहर के आदमी को क्या मालुम कौन अपराधी है, कौन बेकसूर है। दो-चार अपराधियों के साथ दो-चार बेकसूर भी जरूर ही होंगे।

दारोगा-हरगिज नहीं। जितने आदमी पकड़े गए हैं, सब पक्के डाकू हैं।

देवीदीन—यह तो आप कहते हैं न, हमें क्या मालूम।

दारोगा–हम लोग बेगुनाहों को फंसाएंगे ही क्यों? यह तो सोचो।

देवीदीन-यह सब भुगते बैठा हूँ, दारोगाजी ! इससे तो यही अच्छा है कि आप इनका चालान कर दें। साल-दो साल का जेहल ही तो होगा; एक अधरम के दंड से बचने के लिए बेगुनाहों का खून तो सिर पर न चढ़ेगा।

रमा ने भीरुता से कहा- मैंने खूब सोच लिया है दादा, सब कागज देख लिए हैं, इसमें कोई बेगुनाह नहीं है।

देवीदीन ने उदास होकर कहा-होगा भाई ! जान भी तो प्यारी होती है।

यह कहकर वह पीछे घूम पड़ा। अपने मनोभावों को इससे स्पष्ट रूप से वह प्रकट न कर सकता था।

एकाएक उसे एक बात याद आ गई। मुड़कर बोला-तुम्हें कुछ रुपये देता जाऊं।

रमा ने खिसियाकर कहा-क्या जरूरत है?

दारोगा—आज से इन्हें यहीं रहना पड़ेगा।

देवीदीन ने कर्कश स्वर में कहा-हां हुजूर, इतना जानता हूं। इनकी दावत होगी, बंगला रहने को मिलेगा,नौकर मिलेंगे,मोटर मिलेगी। यह सब जानता हूं। कोई बाहर की आदमी इनसे मिलने न पावेगा,न यह अकेले आ-जा सकेंगे,यह सब देख चुका हूं। यह कहता हुआ देवीदीन तेजी से कदम उठाता हुआ चल दिया, मानो वहां उसका दम घुट रहा हो। दारोगा ने उसे पुकारा,पर उसने फिरकर न देखा। उसके मुख पर पराभूत वेदना छाई हुई थी।

जग्गो ने पूछा-भैया नहीं आ रहे हैं?

देवीदीन ने सड़क की ओर ताकते हुए कहा- भैया अब नहीं आयेंगे। अब अपने ही अपने न हुए तो बेगाने तो बेगाने हैं ही । वह चला गया। बुढिया भी पीछे-पीछे भुनभुनाती चली।