मणिभूषण ने फिर पूछा-शायद कहीं लिखकर रख गए हों?
रतन-मुझे तो कुछ मालूम नहीं। कभी जिक्र नहीं किया।
मणिभूषण ने मन में प्रसन्न होकर कहा-मेरी इच्छा है कि उनकी कोई यादगार बनवा दी जाय।
रतन ने उत्सुकता से कहा-हां-हां, मैं भी चाहती हूं।
मणिभूषण–गांव की आमदनी कोई तीन हजार साल की है, यह आपको मालूम है। इतना ही उनका वार्षिक दान होता था। मैंने उनके हिसाब की किताब देखी है। दो सौ ढाई सौ से किसी महीने में कम नहीं है। मेरी सलाह है कि वह सब ज्यों-का-त्यों बना रहे।
रतन ने प्रसन्न होकर कहा-हां, और क्या।
मणिभूषण तो गांव की आमदनी तो धर्मार्थ पर अर्पण कर दी जाए। मकानों का किराया कोई दो सौ रुपये महीना है। इससे उनके नाम पर एक छोटी-सी संस्कृत पाठशाला खोल दी जाए।
रतन-बहुत अच्छा होगा।
मणिभूषण और यह बंगला बेच दिया जाए। इस रुपये को बैंक में रख दिया जाये।
रतन-बहुत अच्छा होगा। मुझे रुपये-पैसे की अब क्या जरूरत है।
मणिभूषण आपकी सेवा के लिए तो हम सब हाजिर हैं। मोटर भी अलग कर दी जाय।अभी से यह फिक्र की जाएगी, तब जाकर कहीं दो-तीन महीने में फुरसत मिलेगी।
रतन ने लापरवाही से कहा-अभी जल्दी क्या है। कुछ रुपये बैंक में तो हैं।
मणिभूषण–बैंक में कुछ रुपये थे, मगर महीने भर से खर्च भी तो हो रहे हैं। हजार-पांच सो पड़े होंगे। यहां तो रुपये जैसे हवा में उड़ जाते हैं। मुझसे तो इस शहर में एक महीना भी न रहा जाय। मोटर को तो जल्द ही निकाल देना चाहिए।
रतन ने इसके जवाब में भी यही कह दिया-अच्छा तो होगा। वह उस मानसिक दुर्बलता की दशा में थी, जब मनुष्य को छोटे-छोटे काम भी असूझ मालूम होने लगते हैं। मणिभूषण की कार्य-कुशलता ने एक प्रकार से उसे पराभूत कर दिया था। इस समय जो उसके साथ थोड़ी-सी भी सहानुभूति दिखा देता, उसी को वह अपना शुभचिंतक समझने लगती। शोक और मनस्ताप ने उसके मन को इतना कोमल और नर्म बना दिया था कि उस पर किसी की भी छाप पड़ सकती थी। उसकी सारी मलिनता और भिन्नता मानो भस्म हो गई थी; वह सभी को अपना समझती थी। उसे किसी पर संदेह न था, किसी से शंका न थी। कदाचित् उसके सामने कोई चोर भी उसकी संपत्ति का अपहरण करता तो वह शोर न मचाती।
बत्तीस
षोड़शी के बाद से जालपा ने रतन के घर आना-जाना कम कर दिया था। केवल एक बार घंटे-दो घंटे के लिए चली जाया करती थी। इधर कई दिनों से मुंशी दयानाथ को ज्वर आने लगा था। उन्हें ज्वर में छोड़कर कैसे जाती। मुंशीजी को जरा भी ज्वर आता, तो वह बक-झक