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142 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


आया। पहले एक दवात टूट जाने पर इसी टीमल को उसने बुरी डांट बताई थी; निकाले देती थी,पर आज उससे कई गुने नुकसान पर उसने जबान सक न झेली। कठोर भाव उसके हृदय में आते हुए मानो डरते थे कि कहीं आघात न पहुंचे या शायद पति-शोक और पति-गुणगान के सिवा और किसी भाव या विचार को मन में लाना वह पाप समझती थी।

वकील साहब के भतीजे का नाम था मणिभूषणा बड़ा ही मिलनसार, हंसमुख, कार्य-कुशल। इसी एक महीने में उसने अपने सैकड़ों मित्र बना लिए। शहर में जिन-जिन वकीलों और रईसों से वकील साहब का परिचय था, उन सबसे उसने ऐसा मेल-जोल बढ़ाया, ऐसी बेतकल्लुफी पैदा की कि रतन को ख़बरे नहीं और उसने बैंक का लेन-देन अपने नाम से शुरू कर दिया। इलाहाबाद बैंक में वकील साहब के बीस हजार रुपये जमा थे। उस पर तो उसने कब्जा कर ही लिया, मकानों के किराए भी वसूल करने लगा। गांवों की तहसील भी खुद ही शुरू कर दी, मानो रतन से कोई मतलब नहीं है।

एक दिन टीमल ने आकर रतन से कहा-बहूजी, जाने वाला तो चला गया, अब घर-द्वार को भी कुछ खबर लीजिए। मैंने सुना, भैयाजी ने बैंक का सब रुपया अपने नाम कर लिया।

रतन ने उसकी ओर ऐसे कठोर कुपित नेत्रों से देखा कि उसे फिर कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी। उस दिन शाम को मणिभूषण ने टीमल को निकाल दिया-चोरी का इल्जाम लेकर निकाला जिससे रतन कुछ कह भी न सके।

अब केवल महराज रह गए। उन्हें मणिभूषण ने भंग पिला-पिलाकर ऐसा मिलाया कि वह उन्हीं का दम भरने लगे। महरी से कहते, बाबूजी को बड़ा रईसाना मिजाज है। कोई सौदा लाओ, कभी नहीं पूछते, कितने का लाए। बड़ों के घर में बड़े ही होते हैं। बहूजी बाल की खाल निकाला करती थीं; यह बेचारे कुछ नहीं बोलते। महरी का मुंह पहले ही सी दिया गया था।

उसके अधेड़ यौवन ने नए मालिक की रसिकता को चंचल कर दिया था। ह एक न एक बहाने से बाहर की बैठक में ही मंडलाया करती। रतन को जरा भी खबर न थी, किस तरह उसके लिए व्यूह रचा जा रहा है।

एक दिन मणिभूषण ने रतन से कहा-काकीजी, अब तो मुझे यहां रहना व्यर्थ मालूम होता है। मैं सोचती हूं, अब आपको लेकर घर चला जाऊं। वहां आपकी बहू अपकी सेवा करेगी; बाल-बच्चों में आपका जी बहल जायगा और खर्च भी कम हो जाएगा। आप कहें तो यह बंगला बेच दिया जाय। अच्छे दाम मिल जायंगे।

रतन इस तरह चौंकी, मानो उसकी मूर्छा भंग हो गई हो, मानो किसी ने उसे झंझोड़कर जगा दिया हो। सकपकाई हुई आंखों से उसकी ओर देखकर बोली-क्या मुझसे कुछ कह रहे हो?

मणिभूषण जी हां, कह रहा था कि अब हम लोगों को यहां रहना व्यर्थ है। आपको लेकर चला जाऊं, तो कैसा हो?

रतन ने उदासीनता से कहा-हां, अच्छा तो होगा।

मणिभूषण-काकाजी ने कोई वसीयतनामा लिखा हो, तो लाइए देखें। उनको इच्छाओं के आगे सिर झुकाना हमारा धर्म है।

रतन ने उसी भाति आकाश पर बैठे हुए, जैसे संसार की बातों से अब उसे कोई सरोकार ही न रहा हो, जवाब दिया-वसीयत तो नहीं लिखी। और क्या जरूरत थी?