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124 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


लिए भी बहुमत जितने रुपये मांगेगा, मिल जाएंगे। कुंजी बहुमत के हाथ में रहेगी, और अभी दस-पांच बरस चाहे न हो लेकिन आगे चलकर बहुमत किसानों और मजूरों ही का हो जाएगा।

देवीदीन ने मुस्कराकर कहा–भैया, तुम भी इन बातों को समझते हो। यही मैंने भी सोचा था। भगवान करें, कुछ दिन और जिऊं। मेरा पहला सवाल यह होगा कि बिलायती चीजों पर दुगुना महसूल लगया जाय और मोटरों पर चौगुन्ना। अच्छा अब भोजन बनाओ। सांझ को चलकर कपड़े दरजी को दे देंगे। मैं भी जब तक खा लें।

शाम को देवीदीन ने आकर कहा- चलो भैया, अब तो अंधेरा हो गया।

रमा सिर पर हाथ धरे बैठा हुआ था। मुख पर उदासी छाई हुई थी। बोला-दादा, मैं घर न जाऊंगा।

देवीदीन ने चकित होकर पूछा-क्यों क्या बात हुई?

रमा की आंखें सजल हो गईं। बोला—कौन-सा मुंह लेकर जाऊं, दादा ! मुझे तो डूब मरना चाहिए था।

यह कहते-कहते वह खुलकर रो पड़ा। वह वेदना जो अब तक मूर्छित पड़ी थी, शीतल जल के यह छींटे पाकर सचेत हो गई और उसके क्रंदन ने रमा के सारे अस्तित्व को जैसे छेद डाला। इसी क्रंदन के भय से वह उसे छेड़ता न था, उसे सचेत करने की चेष्टा न करता था। संयत विस्मृति से उसे अचेत ही रखना चाहता था, मानो कोई दु:खिनी माता अपने बालक को इसलिए जगाते डरती हो कि वह तुरंत खाने को मांगने लगेगा।

सत्ताईस

कई दिनों के बाद एक दिन कोई आठ बजे रमा पुस्तकालय से लौट रहा था कि मार्ग में उसे कई युवक शतरंज के किसी नक्शे की बातचीत करते मिले। यह नक्शा वहां के एक हिंदी दैनिक पत्र में छपा था और उसे हल करने वाले को पचास रुपये इनाम देने का वचन दिया गया था। नक्शा असाध्य-सा जान पड़ता था। कम-से-कम इन युवकों की बातचीत से ऐसा ही टपकता था। यह भी मालूम हुआ कि वहां के और भी कितने ही शतरंजबाजों ने उसे हल करने के लिए भरपूर जोर लगाया; पर कुछ पेश न गई। अब रमा को याद आया कि पुस्तकालय में एक पत्र पर बहुत- से आदमी झुके हुए थे और उस नक्शे की नकल कर रहे थे। जो आता था, दो-चार मिनट तक वह पत्र देख लेता था। अब मालूम हुआ, यह बात थी।

रमा को इनमें से किसी से भी परिचय न था; पर वह यह नक्शा देखने के लिए इतना उत्सुक हो रहा था कि उससे बिना पूछे न रहा गया। बोला-आप लोगों में किसी के पास यह नक्शा है?

युवकों ने एक कंबलपोश आदमी को नक्शे की बात पूछते सुना तो समझे कोई अताई होगा। एक ने रुखाई से कहा- हां, है तो, मगर तुम देखकर क्या करोगे, यहां अच्छे-अच्छे गोते खा रहे हैं। एक महाशय, जो शतरंज में अपना सानी नहीं रखते, उसे हल करने के लिए सौ रुपये अपने पास से देने को तैयार है।