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118 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


देवीदीन ने उसके मन का भाव भांपकर कहा-प्रेम बड़ा बेढब होता है, भैया । बड़े-बड़े चूक जाते हैं, तुम तो अभी लड़के हो। गबन के हजारों मुकदमे हर साल होते हैं। तहकीकात की जाय, तो सबका कारण एक ही होग-गहना। दस-बीस वारदात तो मैं आंखों देख चुका हूं। यह रोग ही ऐसा है। औरत मुंह से तो यही कहे जाती है कि यह क्यों लाए, वह क्यों लाए, रुपये कहां से आयेंगे; लेकिन उसका मन आनंद से नाचने लगता है। यहीं एक डाक-बाबू रहते थे। बेचारे ने छुरी से गला काट लिया। एक दूसरे मियां साहब को मैं जानता हूं, जिनको पांच साल की सजा हो गई. जेहल में मर गए। एक तीसरे पंडित जी को जानता हूं, जिन्होंने अफीम खाकर जान दे दी। बुरा रोग है। दूसरों को क्या कहूं, मैं ही तीन साल की सजा काट चुका हूं। जवानी की बात हैं, जब इस बुढ़िया पर जोबन था, ताकती थी तो मानो कलेजे पर तीर चला देती थी। मैं डाकिया था। मनीआर्डर तकसीम किया करता था। यह कानों के झुमको के लिए जान खा रही थी। कहती थी, सोने ही के लूंगी। इसका बाप चौधरी था। मेवे की दुकान थी। मिजाज बढ़ा हुआ था। मुझ पर प्रेम का नसा छाया हुआ था। अपनी अमदनी की डींगें मारती रहता था। कभी फूल के हार लाता, कभी मिठाई, कभी अतर-फुलेल। सहर का हलका था। जमाना अच्छा था। दुकानदारों से जो चीज मांग लेता, मिल जाती थी। आखिर मैंने एक मनीआर्डर पर झूठे दस्तख़त बनाकर रुपये उड़ा लिए। कुल तीस रुपये थे। झुमके लाकर इसे दिए। इतनी खुश हुई, इतनी खुश हुई, कि कुछ न पूछो, लेकिन एक ही महीने में चोरी पकड़ ली गई। तीन साल की सजा हो गई। सजा काटकर निकला तो यहां भाग आया। फिर कभी घर नहीं गया। यह मुंह कैसे दिखा। हां, घर पत्र भेज दिया। बुढिया खबर पाते ही चली आई। यह सब कुछ हुआ, मगर गहनों से उसका पेट नहीं भरा। जब देखो, कुछ-न-कुछ बनता ही रहता है। एक चीज आज बनवाई, कल उसी को तुड़वाकर कोई दूसरी चीज बनवाई। यहीं तार चला जाता है। एक सोनार मिल गया है, मजूरी में साग- भाजी ले जाती है। मेरी तो सलाह है, घर पर एक ख़त लिख दो, लेकिन पुलिस तो तुम्हारी टोह में होगी। कहीं पता मिल गया, तो काम बिगड़ जायगा। मै न किसी से एक खत लिखाकर भेज दें?

रमा ने आग्रहपूर्वक कहा-नहीं, दादा ! दया करो। अनर्थ हो जायगा। पुलिस से ज्यादा तो मुझे घरवालों का भय है।

देवीदीन-घर वाले खबर पाते ही आ जाएंगे। यह चर्चा ही न उठेगी। उनकी कोई चिंता नहीं। डर पुलिस ही का है।

रमानाथ-मैं सजा से बिल्कुल नहीं डरता। तुमसे कहा नहीं, एक दिन मुझे वाचनालय में जान-पहचान की एक स्त्री दिखाई दी। हमारे घर बहुत आती-जाती थी। मेरी स्त्री से बड़ी मित्रता थी। एक बड़े वकील की पत्नी है। उसे देखते ही मेरी नानीं मर गई। ऐसा सिटपिट गया कि उसकी ओर ताकने की हिम्मत न पड़ी। चुपके से उठकर पीछे के बरामदे में जा छिपा। अगर उस वक्त उससे दो-चार बातें कर नेता, तो घर का सारा समाचार भालूम हो जाता और मुझे यह विश्वास है कि वह इस मुलाकात की किसी से चर्चा भी न करते। मेरी पत्नी से भी न कहती, लेकिन मेरी हिम्मत ही न पड़ी। अब अगर मिलना भी चाहूं, तो नहीं मिल सकता। उसका पताठिकाना कुछ भी तो नहीं मालूम।

देवीदीन-तो फिर उसी को क्यों नहीं एक चिट्ठी लिखते? रमानाथ-चिट्ठी तो मुझसे न लिखी जाएगी।