पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/१०७

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
गबन : 107
 


नहीं किया। अगर इशारा भी कर देते, तो मैं रुपये दे देती। जब वह दोपहर तक नहीं आए और मैं खोजती हुई दफ्तर गई, तब मुझे मालूम हुआ, कुछ नोट खो गए हैं। उसी वक्त जाकर मैंने रुपये जमा कर दिए।

रतन-मैं तो समझती हूं, किसी से आंखें लड़ गईं। दस-पांच दिन में आप पता लग जायगा। यह बात सच न निकले, तो जो कह दें।

जालपा ने हकबकाकर पूछा-क्या तुमने कुछ सुना है? रतन-नहीं, सुना तो नहीं; पर मेरो अनुमान है।

जालपा–नहीं रतन, मैं इस पर जरा भी विश्वास नहीं करती। यह बुराई उनमें नहीं है, और चाहे जितनी बुराइयां हों। मुझे उन पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है। | रतन ने हंसकर कहा-इस कला में ये लोग निपुण होते हैं। तुम बेचारी क्या जानो?

जालपा दृढ़ता से बोली-अगर वह इस कला में निपुण होते हैं, तो हम भी हदय को परखने में कम निपुण नहीं होती। मैं इसे नहीं मान सकती। अगर वह मेरे स्वामी थे, तो मैं भी उनकी स्वामिनी थी।

रतन-अच्छा चलो, कहीं घूमने चलती हो? चलो, तुम्हें कहीं घुमा लावें।

जालपा-नहीं, इस वक्त तो मुझे फुरसत नहीं है। फिर घरवाले यों ही प्राण लेने पर तुले हुए हैं, तब तो जान ही न छोड़ेंगे। किधर जाने का विचार है?

रतन-कहीं नहीं, जरा बाजार तक जाना था। जालपा-क्या लेना है?

रतन-जौहरियों की दुकान पर एक-दो चीज देखेंगी। बस, मैं तुम्हारे-जैसा कंगन चाहती हूँ। बाबूजी ने भी कई महीने के बाद रुपये लौटा दिए। अब खुद तलाश करूंगी।

जालपा–मेरे कंगन में ऐसे कौन-से रूप लगे हैं। बाजार में उससे बहुत अच्छे मिल सकते।

रतन-मैं तो उसी नमूने का चाहती हूं।

जालपा-उस नमूने का तो बना-बनाया मुश्किल से मिलेगा, और बनवाने में महीनों का झंझट। अगर सब्र न आती हो, तो मेरा ही कंगन ले लो, मैं फिर बनवा लूंगी।

रतन ने उछलकर कहा-वाह, तुम अपना कंगन दे दो, तो क्या कहना है । मूसलों ढोल बजाऊ । छ: सौ का था न?

जालपा- हां, था तो छ: सौ की, मगर महीनों सराफ की दुकान की खाक छाननी पड़ी थी। जड़ाई तो खुद बैठकर करवाई थी। तुम्हारे खातिर दे दूंगी।

जालपा ने कंगन निकालकर रतन के हाथों में पहना दिए। रतन के मुख पर एक विचित्र गौरव का आभास हुआ, मानो किसी कंगाल को पारस मिल गया हो। यही आत्मिक आनंद की चरम सीमा है। कृतज्ञता से भरे हुए स्वर से बोली-तुम जितना कहो, उतना देने को तैयार हूं। तुम्हें दबाना नहीं चाहती। तुम्हारे लिए यही क्या कम है कि तुमने इसे मुझे दे दिया। मगर एक बात है। अभी मैं सब रुपये न दे सकेंगी, अगर दो सौ रुपये फिर दे दें तो कुछ हरज है?

जालपा ने साहसपूर्वक कहा- कोई हरज नहीं, जी चाहे कुछ भी मत दो।

रतन-नहीं, इस वक्त मेरे पास चार सौ रुपये हैं, मैं दिए जाती हूँ। मेरे पास रहेंगे तो किसी दूसरी जगह खर्च हो जाएंगे। मेरे हाथ में तो रुपये टिकते ही नहीं, करूं क्या। जब तक