पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/१०३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
गबन : 103
 

रमेश-तो चलो अंदर बैठो, यहां कब तक खड़ी रहोगी। मुझे आश्चर्य है कि वह गए कहां ! कहीं बैठे शतरंज खेल रहे होंगे।

जालपा–नहीं बाबूजी, मुझे ऐसा भय हो रहा है कि वह कहीं और न चले गए हों। अभी दस मिनट हुए, उन्होंने मेरे नाम एक पुरजा लिखा था। (जेब से टटोलकर) जी हां, देखिए वह पुरजा मौजूद है। आप उन पर कृपा रखते हैं, तो कोई परदा नहीं। उनके जिम्मे कुछ सरकारी रुपये तो नहीं निकलते !

रमेश ने चकित होकर कहा-क्यों, उन्होंने तुमसे कुछ नहीं कहा?

जालपा-कुछ नहीं। इस विषय में कभी एक शब्द भी नहीं कहा।

रमेश-कुछ समझ में नहीं आता। आज उन्हें तीन सौ रुपये जमा करना है। परसों की आमदनी उन्होंने जमा नहीं की थी? नोट थे, जेब में डालकर चल दिए। बाजार में किसी ने नोट निकाल लिए। (मुस्कराकर) किसी और देवी की पूजा तो नहीं करते?

जालपा का मुख लज्जा से नत हो गया। बोली-अगर यह ऐब होता, तो आप भी उस इल्जाम से न बेचते। जेब से किसी ने निकाल लिए होंगे। मारे शर्म के मुझसे कहा न होगा। मुझसे जरा भी कहा होता, तो तुरंत रुपये निकालकर दे देती, इसमें बात ही क्या थी।

रमेश बाबू ने अविश्वास के भाव से पूछा-क्या घर में रुपये हैं? जालपा ने नि:शंक होकर कहा–तीन सौ चाहिए न, मैं अभी लिए आती हूँ।

रमेश-अगर वह घर पर आ गए हों, तो भेज देना।

जालपा आकर तांगे पर बैठी और कोचवान से चौक चलने को कहा। उसने अपना हार बेच डालने का निश्चय कर लिया। यों उसकी कई सहेलियां थीं, जिनसे उसे रुपये मिल सकते थे। स्त्रियों में बड़ा स्नेह होता है। पुरुषों की भांति उनकी मित्रता केवल पान-पत्ते तक ही समाप्त नहीं हो जाती; मगर अवसर नहीं था। सराफे में पहुंचकर वह सोचने लगी; किस दुकान पर जाऊं। भय हो रहा था, कहीं ठगी न जाऊं। इस सिरे से उस सिरे तक चक्कर लगा आई, किसी दुकान पर जाने की हिम्मत न पड़ी। उधर वक्त भी निकला जाता था। आखिर एक दुकान पर एक बूढे सराफ को देखकर उसका संकोच कुछ कम हुआ। सराफ बड़ा घाघ था, जालपा की झिझक और हिचक देखकर समझ गया, अच्छा शिकार फंसा।

जालपा ने हार दिखाकर कहा-आप इसे ले सकते हैं?

सराफ ने हार को इधर-उधर देखकर कहा-मुझे चार पैसे की गुंजाइश होगी, तो क्यों न ले लूंगा। माल चोखा नहीं है।

जालपा–तुम्हें लेना है, इसलिए माल चोखा नहीं है, बेचना होता, तो चोखा होता। कितने में लोगे?

सराफ-आप ही कह दीजिए। | सराफ ने साढ़े तीन सौ दाम लगाए, और बढ़ते-बढ़ते चार सौ तक पहुंचा। जालपा को देर हो रही थी; रुपये लिए और चले खड़ी हुई। जिस हार को उसने इतने चाव से खरीदा था, जिसकी लालसा उसे बाल्यकाल ही में उत्पन्न हो गई थी, उसे आज आधे दामों बेचकर उसे जरी भी दु:ख नहीं हुआ, बल्कि गर्वमय हर्ष का अनुभव हो रहा था। जिस वक्त रमा को मालूम होगा कि उसने रुपये दे दिए हैं, उन्हें कितना आनंद होगा। कहीं दफ्तर पहुंच गए हों तो बड़ा मजा हो। यह सोचती हुई वह फिर दफ्तर पहुंची। रमेश बाबू