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लाग-डाँट

जोखू भगत और बेचन चौधरी में तीन पीढ़ियों से अदावत चली आती थी। कुछ डाँड़मेंड़ का झगड़ा था। उनके परदादों में कई बार खून खच्चर हुआ। बापों के समय से मुकदमेबाजी शुरू हुई। दोनों कई बार हाईकोर्ट तक गये। लड़कों के समय में सग्राम की भीषणता और भी बढ़ी। यहाँ तक कि दोनों ही अशक्त हो गये। पहले दोनों इसी गाँव में आधे-आधे के हिस्सेदार थे। अब उनके पास उस झगड़ेवाले खेत को छोड़कर एक अंगुल जमीन भी न थी। भूमि गयी, धन गया, मान-मर्यादा गयी, लेकिन वह विवाद ज्यों-का-त्यों बना रहा। हाईकोर्ट के धुरन्धर नीतिज्ञ एक मामूली-सा झगड़ा तै न कर सके।

इन दोनों सज्जनों ने गाँव को दो विरोधी दलों में विभक्त कर दिया था। एक दल की भंग-बूटी चौधरी के द्वार पर छनती तो दूसरे दल के चरस-गाँजे के दम भगत के द्वार पर लगते थे। स्त्रियों और बालकों के भी दो-दो दल हो गये थे। यहाँ तक कि दोनों सज्जनों के सामाजिक और धार्मिक विचारों में भी विभाजक रेखा खिंची हुई थी। चौधरी कपड़े पहने सत्तू खा लेते और भगत को ढोंगी कहते। भगत बिना कपड़े उतारे पानी भी न पीते और चौधरी को भ्रष्ट बतलाते। भगत सनातन-धर्मों बने तो चौधरी ने आर्य समाज का आश्रय लिया। जिस बजाज, पन्सारी या कुंजड़े से चौधरी सौदा लेते उसकी ओर भगतजी ताकना भी पाप समझते थे और भगतजी के हलवाई की मिठाइयाँ, उसके ग्वाले का दूध और तेली का तेल चौधरी के लिए त्याज्य था। यहाँ तक कि उनके आरोग्य के सिद्धान्तों में भी सिन्नता थी, भगतजी वैद्यक