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प्रेमचंद को सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ

( २ )

सेकण्ड क्लास तो क्या, मैंने कभी इण्टर क्लास में भी सफर न किया था। अबकी सेकण्ड क्लास में सफर करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गाड़ी तो नौ बजे रात को आती थी; पर यात्रा के हर्ष में हम शाम को ही स्टेशन जा पहुँचे। कुछ देर इधर-उधर सैर करने के बाद रिफ्रेशमेंट-रूम में जाकर हम लोगों ने भोजन किया। मेरी वेष-भूषा और रङ्ग-दङ्ग से पारखी खानसामों को यह पहचानने में देर न लगी कि मालिक कौन है और पिछलग्गू कौन; लेकिन न जाने क्यो मुझे उनको गुस्ताखी बुरी लग रही थी। पैसे ईश्वरी के जेब से गये। शायद मेरे पिता को जो वेतन मिलता है, उससे ज्यादा इन खानसामों को इनाम-इकराम में मिल जाता हो। एक अठन्नी तो चलते समय ईश्वरी ही ने दी। फिर भी मैं उन सभों से उसी तत्परता और विनय की प्रतीक्षा करता था जिससे वे ईश्वरी की सेवा कर रहे थे। ईश्वरी के हुक्म पर सब-के-सब क्या दौड़ते हैं। लेकिन मैं कोई चीज माँगता हूँ तो उतना उत्साह नहीं दिखाते। मुझे भोजन में कुछ स्वाद न मिला। यह भेद मेरे ध्यान को सम्पूर्ण रूप से अपनी ओर खींचे हुए था।

गाड़ी आयी, हम दोनों सवार हुए। खानसामों ने ईश्वरी को सलाम किया। मेरी ओर देखा भी नहीं।

ईश्वरी ने कहा-कितने तमीजदार हैं ये सब! एक हमारे नौकर हैं कि कोई काम करने का ढङ्ग नहीं।

मैंने खट्टे मन से कहा-इसी तरह अगर तुम अपने नौकरों की भी आठ आने रोज इनाम दिया करो तो शायद इससे ज्यादा तमीजदार हो जायें।

तो क्या तुम समझते हो, यह सब केवल इनाम के लालच से इतना अदब करते हैं?