दूसरे दिन गया ने बैलों को हल में जोता; पर इन दोनों ने जैसे पाँव उठाने की कसम खा ली थी। वह मारते-मारते थक गया; पर दोनों ने पॉव न उठाया। एक बार जब उस निर्दयी ने हीरा के नाक में खूब उंडे जमाये, तो मोती का गुस्सा काबू के बाहर हो गया। हल लेकर भागा। हल, रस्सी, जुआ, जोत, सब टूट-टाटकर बराबर हो गया। गले में बड़ी-बड़ी रस्सियाँ न होतीं, तो दोनों पकड़ाई में न आते।
हीरा ने मूक भाषा में कहा-भागना व्यर्थ है।
मोती ने उसी भाषा में उत्तर दिया-तुम्हारी तो इसने जान ही ले ली थी। अबकी बड़ी मार पड़ेगी।
'पड़ने दो, बैल का जन्म लिया है, तो मार से कहाँ तक बचेंगे।'
'गया दो आदमियो के साथ दौड़ा आ रहा है। दोनों के हाथों में लाठियाँ है।'
मोती बोला-कहो तो दिखा दूं कुछ मजा मैं भी। लाठी लेकर आ रहा है।'
हीरा ने समझाया-नहीं भाई! खड़े हो जाओ।
'मुझे मारेगा, तो मैं भी एक-दो को गिरा दूँगा।'
'नहीं। हमारी जाति का यह धर्म नहीं है।
मोती दिल में ऐंठकर रह गया। गया आ पहुँचा और दोनों को पकड़कर ले चला। कुशल हुई कि उसने इस वक्त मार-पीट न की, नहीं मोती भी पलट पड़ता। उसके तेवर देखकर गया और सहायक समझ गये, कि इस वक्त टाल जाना ही मसलहत है।
आज दोनों के सामने फिर वही सूखा भूसा लाया गया। दोनों चुपचाप खड़े रहे। घर के लोग भोजन करने लगे। उसी वक्त एक छोटी-सी लड़की दो रोटियाँ लिये निकली, और दोनों के मुँह में देकर चली गयी। उस एक रोटी से इनकी भूख तो क्या शान्त होती; पर दोनों के हृदय की