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दो बैलों की कथा

झूरी ने चिढ़ाया-चारा मिलता तो क्यो भागते?

स्त्री चिढ़ी-भागे इसलिए कि वे लोग तुम जैसे बुद्धुओं की तरह बैलों को सहलाते नहीं। खिलाते हैं तो रगड़कर जोतते भी हैं। यह दोनों ठहरे कामचोर, भाग निकले। अब देखूँ कहाँ से खली और चोकर मिलता है! सूखे भूसे के सिवा कुछ न दूंँगी, खायें चाहे मरें।

वही हुआ। मजूर को कड़ी ताकीद कर दी गयी कि बैलों को खाली सूखा भूसा दिया जाय।

बैलों में नाँद में मुँह डाला तो फीका-फीका। न कोई चिकनाहट न कोई रस! क्या खायें। आशा भरी आँखो से द्वार की ओर ताकने लगे।

भूरी ने मजूर से कहा-थोड़ी-सी खली क्यों नहीं डाल देता बे?

'मालकिन मुझे मार ही डालेंगी।'

'चुराकर डाल आ।'

'न दादा, पीछे से तुम भी उन्हीं की-सी कहोगे।'

( ३ )

दूसरे दिन भूरी का साला फिर आया और बैलों को ले चला। उसने दोनों को गाड़ी में जोता।

दो-चार बार मोती ने गाड़ी को सड़क की खाई में गिराना चाहा; पर हीरा ने संभाल लिया। बह ज्यादा सहनशील था।

सन्ध्या समय घर पहुँचकर उसने दोनो को मोटी रस्सियों से बाँधा, और कल की शरारत का मजा चखाया। फिर वही सूखा भूसा डाल दिया। अपने दोनों बैलों को खली, चूनी, सब कुछ दी।

दोनों बैलों का ऐसा अपमान कभी न हुआ था। भूरी इन्हें फूल की छड़ी से भी न छूता था। उसकी टिटकार पर दोनों उड़ने लगते थे। यहाँ मार पड़ी। आहत सम्मान की व्यथा तो थी ही, उस पर मिला सूखा भूसा! नाँद की तरफ आँखें तक न उठायीं।